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ritesh deo

Abstract

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ritesh deo

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खुशफहमी

खुशफहमी

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मैंने

कितनी दुखहाली में भी

खुशफहमी

का यह

वहम 

पाला हुआ है


वहम के इस

महल की

क्या जरूरत है हमें

हमारे ही

मेहनत

भूख

सपने

और

खून मिले

गारे से


जोड़ी गईं ये दीवारें

गुम्बद

और

भव्य मीनारें

(सदियों की

 मेहनत का

 यह धरोहर)


हमें इस पर गर्व है

की सुहानी

(उदास) धुन

फिजा पर

छाई हुई है


हर पांच सालों में


वहम के इस महल से

महल के इस वहम से


तड़पती तड़पाती

आवाजें

उठतीं हैं


नेकी कर दरिया में डाल

और

हमारे सारे वोट

एक बार फिर

दरिया में बहने लगते हैं

दरिया का

प्रदूषण स्तर

हर बार

बढ़ता ही जाता है


वही वहम

वही महल

वही (एक से) लोग

वही एक सा मन (देह बदलने पर भी)

वही प्रेत

वही पुनर्जन्म

वही दुःख

वही तड़प

वही पीड़ा


भोगने को

वही प्रजाजन

वही वहम के

अगले पांच साल !

फिर

फिर

जाने कब तक !

अंतहीन !


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