STORYMIRROR

ritesh deo

Abstract

4  

ritesh deo

Abstract

तुम्हें मालूम नहीं

तुम्हें मालूम नहीं

1 min
307

तुम्हें 

मालूम नहीं

तुम्हारे बालों में

उलझा हुआ है


मध्यान्ह का

शिशिर थिर सूर्य

अचंभित होते

कि सुबह अस्त हो चुका 

पूर्ण चंद्र


अभी भी

यहीं अटका हुआ है

तुम्हें मालूम नहीं

कि

ये हौलेहौले चलती 

मचलती हवा


एक हरा पत्ता

  जानबूझकर

  असमय झरा

धरा की यह

  धूसर धूल उड़कर


जंगली ऊंची

  घासफूलों की

  टटकी तेज गंध समाकर

बिही कुतरते

  बनसुआ का

  तृप्ति के अतिरेक में

  भेंट स्वरुप झरा

  हरा रेशमी पंख गिर कर


गोखरु का 

  बनैला कांटा

  जबरन चिपककर

और

मेरी

दृष्टिगंगा


वनपृथ्वी की

  भटकती हुई राह पर

  उलझकर

दिशा पाकर

अदृश्य होती


तुम्हारे

निखरे सौंदर्य की

अनबूझ बिखरी

 

भूलभुलैया सी अनसुलझी

केशराशि में


ओ वनदेवी !


तुम्हें मालूम नहीं !


तुम

एक उछलतीबहती नदी की तरह

इस

छोटी पहाड़ी से

नीचे

उतर रही हो !


और मैं

तुम्हें निरखता

पीछे-पीछे

तुम्हें मालूम नहीं !


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract