तुम्हें मालूम नहीं
तुम्हें मालूम नहीं
तुम्हें
मालूम नहीं
तुम्हारे बालों में
उलझा हुआ है
मध्यान्ह का
शिशिर थिर सूर्य
अचंभित होते
कि सुबह अस्त हो चुका
पूर्ण चंद्र
अभी भी
यहीं अटका हुआ है
तुम्हें मालूम नहीं
कि
ये हौलेहौले चलती
मचलती हवा
एक हरा पत्ता
जानबूझकर
असमय झरा
धरा की यह
धूसर धूल उड़कर
जंगली ऊंची
घासफूलों की
टटकी तेज गंध समाकर
बिही कुतरते
बनसुआ का
तृप्ति के अतिरेक में
भेंट स्वरुप झरा
हरा रेशमी पंख गिर कर
गोखरु का
बनैला कांटा
जबरन चिपककर
और
मेरी
दृष्टिगंगा
वनपृथ्वी की
भटकती हुई राह पर
उलझकर
दिशा पाकर
अदृश्य होती
तुम्हारे
निखरे सौंदर्य की
अनबूझ बिखरी
भूलभुलैया सी अनसुलझी
केशराशि में
ओ वनदेवी !
तुम्हें मालूम नहीं !
तुम
एक उछलतीबहती नदी की तरह
इस
छोटी पहाड़ी से
नीचे
उतर रही हो !
और मैं
तुम्हें निरखता
पीछे-पीछे
तुम्हें मालूम नहीं !
