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AJAY AMITABH SUMAN

Classics

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AJAY AMITABH SUMAN

Classics

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-16

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-16

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इस दीर्घ कविता के पिछले भाग अर्थात् पन्द्रहवें भाग में दिखाया गया जब अर्जुन के शिष्य सात्यकि और भूरिश्रवा के बीच युद्ध चल रहा था और युद्ध में भूरिश्रवा सात्यकि पर भारी पड़ रहा था तब अपने शिष्य सात्यकि की जान बचाने के लिए अर्जुन ने बिना कोई चेतावनी दिए युद्ध के नियमों की अवहेलना करते हुए अपने तीक्ष्ण वाणों से भूरिश्रवा के हाथ को काट डाला। कविता के वर्तमान भाग अर्थात् सोलहवें भाग में देखिए जब कृपाचार्य , कृतवर्मा और अश्वत्थामा पांडव पक्ष के सारे बचे हुए योद्धाओं का संहार करने हेतु पांडवों के शिविर के पास पहुँचे तो वहाँ उन्हें एक विकराल पुरुष उन योद्धाओं की रक्षा करते हुए दिखाई पड़ा। उस विकराल पुरुष की आखों से अग्नि समान ज्योति निकल रही थी। वो विकराल पुरुष कृपाचार्य , कृतवर्मा और अश्वत्थामा के लक्ष्य के बीच एक भीषण बाधा के रूप में उपस्थित हुआ था, जिसका समाधान उन्हें निकालना हीं था । प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया " का सोलहवाँ भाग।

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 हे मित्र पूर्ण करने को तेरे मन की अंतिम अभिलाषा, 

हमसे कुछ पुरुषार्थ फलित हो ले उर में ऐसी आशा।

यही सोच चले थे कृपाचार्य कृतवर्मा पथ पे मेरे संग,

किसी विधी डाल सके अरिदल के रागरंग में थोड़े भंग।

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जय के मद में पागल पांडव कुछ तो उनको भान कराएँ,

जो कुछ बित रहा था हमपे थोड़ा उनको ज्ञान कराएँ ?

ऐसा हमसे कृत्य रचित हो लिख पाएं कुछ ऐसी गाथा,

मित्र तुम्हारी मृत्यु लोक में कुछ तो कम हो पाए व्यथा।

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मन में ऐसा भाव लिए था कठिन लक्ष्य पर वरने को ,

थे दृढ प्रतिज्ञ हम तीनों चलते प्रति पक्ष को हरने को।

जब पहुंचे खेमे अरिदल योद्धा रात्रि पक्ष में सोते थे ,    

पर इससे दुर्भाग्य लिखे जो हमपे कम ना होते थे। 

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प्रतिपक्ष शिविर के आगे काल दीप्त एक दिखता था,

मानव जैसा ना दिखता यमलोक निवासी दिखता था।

भस्म लगा था पूरे तन पे सर्प नाग की पहने माला ,

चन्द्र सुशोभित सर पर जिसके नेत्रों में अग्निज्वाला।

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कमर रक्त से सना हुआ था व्याघ्र चर्म से लिपटा तन,

रुद्राक्ष हथेली हाथों में आयुध नानादि तरकश घन।

निकले पैरों से अंगारे थे दिव्य पुरुष के अग्नि भाल, 

हे देव कौन रक्षण करता था प्रतिपक्ष का वो कराल?

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कौन आग सा जलता था ये देख भाव मन फलता था,

गर पांडव रक्षित उस नर से ध्येय असंभव दिखता था।  

प्रतिलक्षित था चित्तमें मनमें शंका भाव था दृष्टित भय,  

कभी आँकते निजबल को और कभी विकराल अभय।  

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