चाँद और मेरी बेटी
चाँद और मेरी बेटी
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कभी-कभी अपनी बेटी को चाँद के साथ
किलकते-खिलखिलाते देखता हूँ,
उसे देखकर
मेरा मन भी किलकने लगता है
पर ऐसा
बस कभी-कभी ही होता है।
वरना हमेशा तो उसे
चुपचाप
बेबस-लाचार निगाहों से
आसमान की ओर
ताकते हुये ही पाता हूँ।
मन करता है कि चाँद को तोड़कर
उसके कुर्ते में टाँक दूँ।
लेकिन हमारे चाहने से क्या होता है,
मेरी बाँह की पहुँच
चाँद तक
न तो है
और न हो ही सकती है।
इसलिये उसे बहलाने की ,
फुसलाने की,
चाँद की निस्सारता बताने की
बेकार सी कोशिश करता हूँ ।
वह भी मेरी लाचारी को समझती है
और मुस्कुराने की
बेजान सी कोशिश करती है।
लेकिन मेरे दोस्त
जब मुरझाई मुस्कान के
दो इंच ऊपर
आँख में फँसा कोई आँसू
तेजाब बन कर
आपकी छाती में उतर जाता है
तो उसका कोई इलाज नहीं होता।
आप केवल अपने कलेजे को
तिल-तिल कर
गलता हुआ महसूस करने के अलावा
कुछ भी नहीं कर पाते।
मेरी बेटी की निगाह
चाँद पर ही जाकर
क्यों अटकती है ?
सच है कि
उसके पास चाँद नहीं है,
उन्मुक्त आकाश नहीं है,
आकाश के हर छोर को छूने में समर्थ
पंख नहीं हैं,
तो क्या हुआ ?
उसके पास
उसका छोटा सा आँगन तो है
जहाँ वह आज भी
सात खाने खींच कर
गौरैया सी फुदक सकती है।
जहाँ वह पाँच गुट्टियाँ लेकर
गुट्टे खेल सकती है।
कुछ नहीं तो
गुड्डे-गुड़ियों का
ब्याह रचा सकती है।
लेकिन
अब इनमें उसका मन नहीं रमता।
कभी-कभी
अड़ोस-पड़ोस की बच्चियों को
खेलता देखकर ललचाता तो है
पर हिचक आड़े आ जाती है।
वह अब अपने को
बड़ा समझने लगी है ।
ये बेटियाँ बड़ी क्यों हो जाती हैं ?
मैं तो अपनी बेटी को
आज भी आँगन में
तितली के पीछे
दौड़ते हुए देखना चाहता हूँ।
आसमान के चाँद को
ताकते हुए नहीं -
बाल्टी में उतर आये
चाँद के साथ
खेलते हुए देखना चाहता हूँ।
उसके बड़े होने का अहसास
मेरे लिये
बड़ी सी सजा बन जाता है।
सच में
छोटे से आँगन की
बेटी का बड़ा होना
बड़ा त्रासद होता है -
बेटी के लिये भी
और उसके बाप के लिये भी।
बेटी के बड़े होने के साथ-साथ
उसके सपने भी बड़े हो जाते हैं
वो छोटे से आँगन में
समा ही नहीं पाते
और उन्हें आँगन में समेटने का प्रयास
उन्हें तोड़ डालता है।
स्थितियाँ
और भी भयावह हो गई हैं
जबसे कमरे-कमरे में
टीवी की सलोनी नायिकाओं ने
प्रवेश कर लिया है।
अब बेटियों की आँखें
इन नायिकाओं की आँखों से
सपने देखने लगी हैं।
इन आँखों के सपने तो
और भी बड़े होते हैं।
वे आँगन तो क्या,
गली मोहल्ले में नहीं समा पाते।
वे सारी गली,
सारे मोहल्ले की
आँखों में खटकने लगते हैं।
कैसी विडंबना है
जो मम्मी,
जो चाची
कहानी की नायिका के
सपनों के साथ खड़ी होती हैं
वे ही
बेटी की आँख से
सपनों को नोच कर
फेंक देना चाहती हैं !
काश !
बेटी बड़ी ही न होती!
तो उसकी आँखों पर
पहरा भी नहीं बिठाना पड़ता।
पर बेटी तो बड़ी हो रही है
वह बाल्टी में उतर आये
चाँद के साथ खेलने की बजाय
सूनी-सूनी आँखों से
आसमान के चाँद को
निहार भी रही है।
और उसकी आँखों में
अटका हुआ आँसू
तेजाब बनकर
मेरे कलेजे में
उतर भी रहा है।