रामायण-१०;विश्वामित्र का आगमन
रामायण-१०;विश्वामित्र का आगमन
गाधि के पुत्र मुनि विश्वामित्र
वन में आश्रम सुँदर उनका
मारीच , सुबाहु दो राक्षस
यज्ञ करें विध्वंश उनका।
अयोध्या नगरी में पहुंचे वो
भगवान का दर्शन करने को
जानें हरि ने है जन्म लिया
ऋषि मुनियों के दुःख हरने को।
दशरथ सत्कार किया, कहा
जो भी मांगोगे तुम स्वामी
इच्छा करूंगा पूरी मैं
प्रण किया और भर दी हामी।
राम और लक्ष्मण को मांग लिया
मुनि कहा, पुत्र लेने आया
राजा हृदय से हुए व्याकुल
अँधेरा आँखों आगे छाया।
मुनि बोले तंग करते राक्षस
मेरी रक्षा को आश्रम आएं
दशरथ कहें प्राण मेरे ले लो
पर राम को न लेकर जाएं।
बोले, दोनों सुकुमार हैं ये
वहां राक्षस हैं, घना जंगल होगा
मुनि वशिष्ठ ने उनको समझाया
घबराओ नहीं, मंगल होगा।
दोनों भाई ले धनुषवाण
एक श्याम है और एक गौर वर्ण।
चौड़ी छाती, विशाल भुजा
तैयार हुए, जाने को वन।
राम और लक्ष्मण फिर संग गए
विश्वामित्र का कहना मान
मिली ताड़का रस्ते में उनको
एक वाण से ही हर लिए प्राण।
मुनि के आश्रम में पहुँच गए
भोजन में कंदमूल खाए
सुबह उठे यज्ञ विध्वंश करने
मारीच और साथी राक्षस आए।
सौ योजन था वो दूर गिरा
मारीच को जब मारा था वाण
सुबाहु को था फिर मार दिया
अपने कुल का रखा था मान ।
मुनि धनुषयज्ञ दिखलाने चले
रस्ते में एक आश्रम मिला
गौतम पत्नी को मिला था शाप
अहल्या बन गई थी एक शिला।
श्री राम से कहें विश्वामित्र
तुम चरणों को शिला पर धर दो
तुम्हारे दर्शनों को तरस रही
उद्धार करो, कृपा कर दो।
चरणस्पर्श से जी उठी अहल्या
बोलीं, कृपा की, दर्शन दिया
आनंद से भर गयीं थी बहुत
फिर पतिलोक प्रस्थान किया।
मुनि गंगा जी के तट पर गए
कैसे प्रकट हुईं, ये कही कथा
फिर सबने उसमे स्नान किया
और पहुंचे जहाँ जनकपुर था।
एक बाग़ में था विश्राम किया
सुंदर नगर, भाए मन को
जब जनक को पता चला,आए
विश्वामित्र के दर्शन को।
तब जनक ने राम लखन देखे
मन में प्रशन , चाहें उत्तर
मुनि से पूछा कि कौन हैं ये
मुनि बोले ये दशरथ पुत्र।
मेरे हित के लिए ये आए हैं
असुरों से यज्ञ की रक्षा की
जनक सबको नगर लिवा लाये
और आवभगत करी सबकी।
अगले दिन चले दोनों भाई
भ्रमण नगर का करने को
मोहित हो जाता हर कोई
सुंदरता उनकी देखे जो।
एक श्याम वर्ण, एक गौर वर्ण
विशाल भुजा, कमल से नेत्र
माथे पे तिलक,घुघराले बाल
हाथों में धनुष, पीले वस्त्र।
राम छवि लेकर मन में
सभी नगरवासी कहें मन से
वो सोचें कि सीता के लिए
वर कोई नहीं अच्छा इनसे।
फिर सुबह को दोनों लेने गए
पूजा के लिए थे फूल जहाँ
उस पुष्पवाटिका में सीता
सखियों के संग आईं थी वहां।
दोनों को देख सखिओं ने जब
सीता को जा कर बतलाया
सखिओं के संग सीता जी ने
तब राम का दर्शन था पाया।
राम ने सीता को देखा
नेत्र हुए निश्चल देख छवि
मूरत थी एक सुँदरता की
ऐसी न देखी थी कभी।
पार्वती पूजा की सीता
वर रूप में प्रभु को मांग लिया
मन वांछित फल पाओगी तुम
ये आशीर्वाद गोरां ने दिया।
अगले दिन भेजे शतानन्द
जनक ने मुनि के पास वहां
बुलाया था राजकुमारों को
धनुषयज्ञ हो रहा जहाँ।