STORYMIRROR

AJAY AMITABH SUMAN

Classics

5  

AJAY AMITABH SUMAN

Classics

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग:22

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग:22

2 mins
492

मन की प्रकृति बड़ी विचित्र है। किसी भी छोटी सी समस्या का समाधान न मिलने पर उसको बहुत बढ़ा चढ़ा कर देखने लगता है। यदि निदान नहीं मिलता है तो एक बिगड़ैल घोड़े की तरह मन ऐसी ऐसी दिशाओं में भटकने लगता है जिसका समस्या से कोई लेना देना नहीं होता। कृतवर्मा को भी सच्चाई नहीं दिख रही थी। वो कभी दुर्योधन को , कभी कृष्ण को दोष देते  तो कभी प्रारब्ध कर्म और नियति का खेल समझकर अपने प्रश्नों के हल निकालने की कोशिश करते । जब समाधान न मिला तो दुर्योधन के प्रति सहज सहानुभूति का भाव जग गया और अंततोगत्वा स्वयं द्वारा दुर्योधन के प्रति उठाये गए संशयात्मक प्रश्नों पर पछताने भी लगे। प्रस्तुत है दीर्ध कविता "दुर्योधन कब मिट पाया का बाइसवाँ भाग।

==========================

मेरे भुज बल की शक्ति क्या दुर्योधन ने ना  देखा?

कृपाचार्य की शक्ति का कैसे कर सकते अनदेखा?

दुःख भी होता था हमको और किंचित इर्ष्या होती थी,

मानवोचित विष अग्नि उर में जलती थी बुझती थी।

==========================

युद्ध लड़ा था जो दुर्योधन के हित में था प्रतिफल क्या?

बीज चने के भुने हुए थे क्षेत्र परिश्रम ऋतु फल क्या?

शायद मुझसे भूल हुई जो  ऐसा कटु फल पाता था,

या विवेक में कमी रही थी कंटक दुख पल पाता था।

==========================

या समय का रचा हुआ लगता था पूर्व निर्धारित खेल,

या मेरे प्रारब्ध कर्म का दुचित वक्त प्रवाहित मेल।

या स्वीकार करूँ दुर्योधन का मतिभ्रम था ये कहकर,

या दुर्भाग्य हुआ प्रस्फुटण आज देख स्वर्णिम अवसर।

==========================

मन में शंका के बादल जो उमड़ घुमड़ कर आते थे, 

शेष बची थी जो कुछ प्रज्ञा धुंध घने कर जाते थे ।

क्यों कर कान्हा ने मुझको दुर्योधन के साथ किया?

या नाहक का हीं था भ्रम ना केशव ने साथ दिया? 

=========================

या गिरिधर की कोई लीला थी शायद उपाय भला,

या अल्प बुद्धि अभिमानी पे माया का जाल फला।

अविवेक नयनों पे इतना सत्य दृष्टि ना फलता था,

या मैंने स्वकर्म रचे जो उसका हीं फल पलता था?  

==========================

या दुर्बुद्धि फलित हुई थी ना इतना सम्मान किया,

मृतशैया पर मित्र पड़ा था ना इतना भी ध्यान दिया।

क्या सोचकर मृतगामी दुर्योधन के विरुद्ध पड़ा ,

निज मन चितवन घने द्वंद्व में मैं मेरे प्रतिरुद्ध अड़ा।

==========================

 



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics