श्रीमद्भागवत-२६४; द्विविद का उद्धार
श्रीमद्भागवत-२६४; द्विविद का उद्धार
राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन
सर्वशक्तिमान, अनन्त बलराम जी
उनकी एक एक लीला अलौकिक
अद्भुत कर्म उनके और कई ।
उन्हें मैं हूँ सुनना चाहता
श्री शुकदेव जी ने तब कहा ये
द्विविद नाम का एक वानर था
भोमासुर मित्र थे उसके ।
सुग्रीव का मंत्री था वो
और भाई था मैन्द का
जब उसने सुना कि कृष्ण ने
भोमासुर का वध कर दिया ।
अपने मित्र की मित्रता के
ऋण से उऋण होने के लिए
वो तब उतारू हो गया
बदला लेने के लिए कृष्ण से ।
बड़े बड़े नगरों, गाँवों और
अहीरों की बस्तियों में आग लगाता
विशेषकर काठीयावाड देश में
जहां श्री कृष्ण का निवास था ।
दस हज़ार हाथियों का बल उसमें
समुंदर में खड़ा होकर जब वो
हाथों से था जल उछलता
डूबा देता देश, समुंदर तट पर जो ।
ऋषियों मुनियों के आश्रमों में
उजाड़ देता वनस्पतियों को
दूषित करता मल मूत्र से
यज्ञ सम्बन्धी अग्नियों को ।
स्त्रियों, पुरुषों को ले जाता
डाल देता पहाड़ों की गुफा में
रैवतक पर्वत पर गया एक दिन वो
वहाँ जाकर उसने देखा ये ।
कि यदुवंश शिरोमणि श्री बलराम जी
विराजमान स्त्रियों के बीच में
स्त्रियों की अवहेलना करके
किलकारी मार डराने लगा उन्हें ।
गरजकर मुँह बनाता, घुड़कता
बलराम जी तब क्रोधित हो गए
एक पत्थर फेंका था उसपर
बचा लिया अपने को द्विविद ने ।
फोड़ डाला मधु कलश और
स्त्रियों के वस्र फाड़ डाले उसने
अत्यन्त क्रोधित हुए बलराम जी
हल, मूसल उठाया क्रोध में ।
द्विविद भी बड़ा बलवान था
शाल का पेड़ उखाड़कर फेंका
बलराम जी ने उसे पकड़कर
मूसल से उसपर प्रहार किया ।
द्विविद का मस्तक फट गया
पेड़ फेंकता रहा फिर भी वो
सारे वृक्ष जब ख़त्म हो गए
फेंकने लगा चट्टानों को ।
चूर चूर कर दिया उनको
मूसल से बलराम जी ने
तब छाती पर प्रहार कर दिया
द्विविद ने अपनी बाहों से ।
क्रुद्ध होकर बलराम जी ने
हंसली पर प्रहार किया उसके
धरती पर गिरकर मार गया वो
देवता फूलों की वर्षा करने लगे ।
