श्रीमद्भागवत-२३३ अरिष्टासुर का उद्धार और कंस का श्री अक्रूर जी को व्रज में भेजना
श्रीमद्भागवत-२३३ अरिष्टासुर का उद्धार और कंस का श्री अक्रूर जी को व्रज में भेजना
श्री शुकदेवजी कहते, इक दिन जब
भगवान ने प्रवेश किया था व्रज में
अरिष्टासुर नाम का दैत्य एक
आया रूप बैल का धर के ।
अपने खुरों को पटके ज़ोर से
धरती कांपने लगी थी उससे
बड़े ज़ोर से गरज रहा वो
खेतों की मेंड तोड़े सींगो से ।
भयंकर उस बैल को देखकर
गोप, गोपियाँ भयभीत हो गए
पशु इतने डर गए कि
भाग ही गए वो वहाँ से ।
ब्रजवासी कृष्ण की शरण में गए
ढाँढस बँधाया कृष्ण ने उन्हें
वृषासुर को फिर ललकारा था
उसे क्रोधित करने के लिए ।
वृषासुर क्रोध से तिलमिला उठा
झपटा श्री कृष्ण की और वो
कृष्ण की और बड़े वेग से
सींग आगे करके दौड़ा वो ।
भगवान कृष्ण ने दोनो हाथों से
उसके दोनो सींग पकड़ लिए
पीछे धकेलकर उसे गिरा दिया
खड़ा हो झपटा उनपर वो फिर से ।
श्री कृष्ण ने लात मार कर
गिरा दिया उसे, सींग पकड़ लिए
पैरों से जब कुचला उसे तो
प्राणों छोड़े थे बड़े कष्ट से उसने ।
अरिष्टासुर को जब मारा था कृष्ण ने
नारद जी कंस के पास पहुँचे थे
शीघ्र से शीघ्र दर्शन कराना चाहते थे
दर्शन भगवान का लोगों को वे ।
इसलिए कंस से कहा उन्होंने
कन्या तुम्हारे हाथ से जो
छूटकर आकाश में गयी थी
यशोदा की पुत्री थी वो ।
और कृष्ण व्रज में हैं जो
पुत्र हैं वो देवकी के
और बलराम जो उनके साथ हैं
पुत्र हैं रोहिणी जी के वे ।
डरकर तुमसे वासुदेव ने तीनों को
अपने मित्र नंद के पास में
रख दिया था, और कृष्ण ने ही
दैत्यों को मारा, जो अनुचर तुम्हारे ।
यह सुन कंस क्रोध से कांप उठा
वासुदेव को मारने के लिए उसने
तुरंत ही तलवार उठा ली
परंतु नारद ने रोक दिया उसे ।
वासुदेव, देवकी को कंस ने
डाल दिया जेल में फिर से
नारद के चले जाने पर फिर
केशी को बुलाया था कंस ने ।
कहा उसे, तुम व्रज में जाओ
मार डालो बलराम, कृष्ण को
उसके बाद बुलाया मुष्टिक
चानूर, शल, तोशल आदि को ।
इन पहलवानों, मंत्रियों, महावतों
को बुलाकर तब कहा कंस ने
वीरवार, चानूर और मुष्टिक
मेरी बात सुनो ध्यान से ।
बलराम, कृष्ण वासुदेव के पुत्र
नंद के व्रज में रहते हैं वे
मेरी मृत्यु बतलायी जाती
है उन्ही दोनो के हाथ से ।
अतः जब वे मथुरा आएँ तो
कुश्ती लड़ने
लड़ाने के बहाने
तुम लोग तब मार डालना
उन दोनो शत्रुओं को मेरे ।
अब तुम दंगल के लिए
अखाडे बनाओ, मंच तैयार करो
ताकि नगरवासी मथुरा के
दंगल को सभी देख सकें वो ।
महावत, तुम दंगल के घेरे में
फाटकपर कुवलीयापीड को रखना
मेरे शत्रु उधर से निकलें तो
हाथी से उन्हें मरवा देना ।
इसके बाद बुलाया कंस ने
अक्रूर जी को और कहा उनसे
बड़े उदार दानी आप हैं
और आदरणीय आप मेरे ।
एक बड़े काम के लिए
मैंने आश्रय लिया आपका
नन्दबाबा के व्रज में जाईए
वासुदेव के दो पुत्र वहाँ ।
उन्हें कैसे भी यहाँ ले आईए
साथ में नंद और गोपों को भी
मेरी मृत्यु का कारण निश्चित किया
देवताओं ने उनके भरोसे ही ।
मरवा डालूँगा यहाँ आते ही
कुवलीयापीड हाथी से उन्हें
इससे वे बच भी गए तो
मार डालें चानूर, मुष्टिक उन्हें ।
शोकाकुल होंगे उनके मरने पर
वासुदेव और सारे बंधु उनके
और मार डालूँगा मैं
अपने हाथों से फिर उन्हें ।
मेरे पिता अग्रसेन और
उनके भाई देवक हैं जो
और जो उनका प्रिय करने वाले
मार डालूँगा मैं उन सबको ।
अक्रूर जी फिर आप और मैं होंगे
और अकंटक राज्य पृथ्वी का
जरासंध मेरे ससुर हैं
वानरराज द्विविद मेरे प्यारे सखा ।
शम्बरासुर, नरकासुर, बाणासुर
मेरे मित्र हैं ही ये तो
इन सब की सहायता से मैं
मारकर देवपक्षि नरपतियों को ।
पृथ्वी का अकंटक राज्य भोगूँगा
अभी बच्चे हैं, बलराम और कृष्ण तो
उन दोनो को मारने में मुझको
कोई भी कठिनाई ना हो ।
उन्हें केवल इतना कहिएगा
कि धनुष्यज्ञ के दर्शन के लिए
और मथुरा की शोभा देखने को
वे लोग यहाँ आ जाएँ ।
अक्रूर कहें, महाराज आप तो
अपनी मृत्यु दूर करना चाहते
आपका सोचना ठीक ही है, पर
फल मिलता नहीं केवल प्रयत्न से ।
दैवी प्रेरणा से मिलता फल
बड़े बड़े मनोरथ मनुष्य करे
परंतु यह वह नहीं जानता
नष्ट कर रखा ये पहले ही प्रारब्ध ने ।
यही कारण कि जब कभी प्रारब्ध के
अनुकूल होने पर प्रयत्न सफल हो
तो मनुष्य फूल जाए हर्ष से
और प्रतिकूल होने पर शोकाकुल हो ।
फिर भी पालन करूँ आप की आज्ञा का
ऐसा कहके अक्रूर चले गए
और फिर विदा कर दिया
बाक़ी मंत्रियों को भी कंस ने ।