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V. Aaradhyaa

Classics

4  

V. Aaradhyaa

Classics

मन की मणिकाएं

मन की मणिकाएं

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हैं कुछ सवाल भी अनुत्तारित से,

पूछते रहते हैं जो हम इस मन से !

अपने पथ को भी आप बढ़ाओ,

दूर ही रहो इन सारी छल बल से !


शब्दों से ही अक्सर खेलते हैं हम,

लिखते हैं जो भी तो बस दिल से !

पढ़कर भी अगर समझ जाए जो,

मिलते हैं ऐसे लोग बड़ी मुश्किल से !


क्षणिकाएं भाव की अभी और भी हैं,

मन की कुछ मणिकाएं और शब्द हैं !

शब्दों की माला ज़ब बुनते हैं भाव,

तब लेखनी की गणिकाएं और भी हैं!


चंद दिनो की चांदनी दिखाकर,

रात को भी ज़ब भोर बोलते हैं !

बैठे हैं हम सब कांटो की सेज पर,

ह्रदय पर चढ़े हुए शब्द बोलते हैं !


सकुन एक पेड़ की ठंडी छाया है,

और धूप को घटा घनघोर बोलते हैं !

प्रेम के वचनों से ज़ब हो उजाला,

बिन माँगे फिर से मोती ही मिलते हैं !


कौन जग से जाने पर भला रोता है,

उसको ये मन के चितचोर बोलते हैं !


ऐसा ज़ीवन ना हो किसी के लिए भार,

ये बात तो हम सब हर रोज़ बोलते हैं !

नहीं बिलखना चाहिए इस दौर में अब,

हमारे कर्म मुक्ति का एक द्वार खोलते हैं !


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