मन की मणिकाएं
मन की मणिकाएं
हैं कुछ सवाल भी अनुत्तारित से,
पूछते रहते हैं जो हम इस मन से !
अपने पथ को भी आप बढ़ाओ,
दूर ही रहो इन सारी छल बल से !
शब्दों से ही अक्सर खेलते हैं हम,
लिखते हैं जो भी तो बस दिल से !
पढ़कर भी अगर समझ जाए जो,
मिलते हैं ऐसे लोग बड़ी मुश्किल से !
क्षणिकाएं भाव की अभी और भी हैं,
मन की कुछ मणिकाएं और शब्द हैं !
शब्दों की माला ज़ब बुनते हैं भाव,
तब लेखनी की गणिकाएं और भी हैं!
चंद दिनो की चांदनी दिखाकर,
रात को भी ज़ब भोर बोलते हैं !
बैठे हैं हम सब कांटो की सेज पर,
ह्रदय पर चढ़े हुए शब्द बोलते हैं !
सकुन एक पेड़ की ठंडी छाया है,
और धूप को घटा घनघोर बोलते हैं !
प्रेम के वचनों से ज़ब हो उजाला,
बिन माँगे फिर से मोती ही मिलते हैं !
कौन जग से जाने पर भला रोता है,
उसको ये मन के चितचोर बोलते हैं !
ऐसा ज़ीवन ना हो किसी के लिए भार,
ये बात तो हम सब हर रोज़ बोलते हैं !
नहीं बिलखना चाहिए इस दौर में अब,
हमारे कर्म मुक्ति का एक द्वार खोलते हैं !