श्रीमद्भागवत - २००; कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का आकाश में जाकर भविष्यवाणी
श्रीमद्भागवत - २००; कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का आकाश में जाकर भविष्यवाणी
श्रीशुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
वासुदेव गोकुल से लौट आये जब
नगर के बाहरी भीतरी दरवाजे
अपने आप बंद हो गए तब।
रोने की ध्वनि सुन नवजात शिशु की
द्वारपालों की नींद टूट गयी
कंस के पास जाकर उन्होंने
देवकी के संतान होने की बात कही।
बात सुनकर द्वारपालों की कंस फिर
शीघ्रता से सूतिकागृह की और गया
इस बार मेरे काल का जन्म हुआ
ये सोचकर विह्वल हो रहा।
ये भी उसको ध्यान न रहा
कि बाल बिखरे हुए हैं उसके
बंदीगृह में जब पहुंचा तो
देवकी ने कहा था उससे।
यह कन्या स्त्री जाती की
स्त्री की हत्या नहीं करनी चाहिए तुम्हे
देववश कई तेजस्वी बालक मेरे
मार डाले पहले ही तुमने।
अब यही एक कन्या बची है
इसको तो मुझे दे दो तुम
मैं तुम्हारी छोटी बहन हूँ
इतनी मुझपर कृपा करो तुम।
शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
छिपाकर कन्या को गोद में
रोते रोते याचना की थी
देवकी ने भाई कंस से।
परन्तु कंस बड़ा दुष्ट था
झिड़ककर देवकी को उसने
उसके हाथ से कन्या छीन ली
पकड़ लिया फिर पैरों से उसे।
जोर से चट्टान पर दे मारा
परन्तु कन्या वो साधारण नहीं थी
देवी वो, कंस से छूटकर
तुरंत आकाश में चली गयी।
बड़े बड़े आठ हाथों में अपने
आयुध लिए वो दीख पड़ी
दिव्य माला, वस्त्र,चंदन और
आभूषणों से विभूषित थी।
सिद्ध, गन्धर्व, चारण स्तुति कर रहे
देवी ने तब कंस से कहा
' मूर्ख, मुझे मराने से क्या मिले तुम्हे
शत्रु तुम्हारा तो पैदा हो चुका '।
इस प्रकार कह योगमाया तब
अंतर्ध्यान हो गयी वहां से
विभिन्न नामों से प्रसिद्द हुई
पृथ्वी के अनेक स्थानों में।
कंस को आश्चर्य हुआ था
सुनकर देवी की बात ये
कैद में से छोड़ दिया था
देवकी और वासुदेव को उसने।
बड़ी नम्रता से उसने कहा
मैं पापी, खेद है मुझे
कि मार डाला तुम्हारे
पुत्रों को मैंने बहुत से।
पता नहीं किस नर्क में
मुझे जाना पड़ेगा इससे
पुत्रों को जो मारा तुम्हारे
शोक न करो तुम उनके लिए।
क्योंकि सभी प्राणियों को अपने
कर्म का फल भोगना पड़ता
ऐसा कह राजा कंस फिर
देवकी वासुदेव के चरणों में गिर पड़ा।
आँखों में आंसू थे उसके
और देवकी ने जब देखा कि
कंस को पश्चाताप हो रहा
तो क्षमा कर दिया था उसे।
वासुदेव ने कंस से कहा
ठीक वैसा है, आप जो कहते
लोग अज्ञान के कारण ही
शरीर को ही मैं समझ बैठते।
उन्हें इस बात का पता नहीं है
कि भगवान् ही नाश हैं करते
एक भाव से दुसरे भाव का और
एक वस्तु का दूसरी वस्तु से।
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
अनुमति लेकर उन दोनों से
कंस चला गया अपने महल में
अगले दिन मिला मंत्रिओं से |
योगमाया ने जो कहा था
कह सुनाया वह सब उसने
उसके जो सब मंत्री थे
पूर्णतय नीति निपुण नहीं थे।
दैत्य होने के कारण से
शत्रुता का भाव रखें देवताओं से
स्वामी कंस की बात को सुनकर
देवताओं पर और भी चिढ गए।
कंस से उन्होंने ये कहा
यदि ऐसी बात है तो
नगर वासिओं में जितने भी
जन्में बच्चे हैं हम उनको।
मार डालते हैं आज ही
दस दिन से छोटे या बड़े वे
हम सब हैं आपके सेवक
बस आप आज्ञा दीजिये।
आपके सामने देवता हीन हैं
रणभूमि के बाहर वे बड़ी डींगें हांकते
उनके तथा एकांतवासी विष्णु
या बनवासी शकर से।
अलपवीर्य इंद्र से, तपस्वी ब्रह्मा से
हमें किसी से भी भय नहीं
हमारी सबकी राय है ऐसी
फिर भी उपेक्षा न करें उनकी।
क्योंकि हैं तो वे शत्रु ही
इसलिए उनकी जड़ उखड फेंकने के लिए
आप के विश्वासपात्र हम
सब को नियुक्त कीजिये।
शत्रु की उपेक्षा यदि कर दी जाये
और वह अपना पाँव जमा ले
तो फिर उस दुश्मन को युद्ध में
हराना बड़ा कठिन हो जाये।
देवताओं की तरह विष्णु भी
वहां रहता जहाँ धर्म है
वेद,गौ, ब्राह्मण, तपस्या, यज्ञ
सनातन धर्म की ये जड़ हैं।
इसलिए वेदवादी ब्राह्मण
तपस्वी, याज्ञिक और गाय का
यज्ञ के लिए पदार्थ देती जो
नाश करेंगे हम इन सबका।
विष्णु देवताओं का स्वामी
असुरों का प्रधान दोषी है
उसे मार डालने का उपाय
ऋषिओं को मार डालना ही है।
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
बुद्धि तो कंस की बिगड़ी हुई पहले से
फिर उसे मंत्री ऐसे मिले जो
उससे भी बढ़ कर दुष्ट थे।
इस प्रकार असुर कंस ने
काल के फंदे में फंसे होने से
यही ठीक समझा था उसने
कि ब्राह्मणों को ही मार डाला जाये।
हिंसाप्रेमी राक्षसों को उसने
आदेश दिया, सत्पुरुषों को मारो
इच्छानुसार रूप धारण कर सकते
इधर उधर सब चले गए वो |
उन असुरों की प्रकृति रजोगुणी
चित विवेक से रहित हो रहा
सिर पर उनके मौत नाच रही
इसी कारण संतों से द्वेष किया।