श्रीमद्भागवत - २२८ ; गोपिका गीत
श्रीमद्भागवत - २२८ ; गोपिका गीत


विरहावेश में गोपियाँ गाने लगीं
हमारे व्रज की महिमा बढ़ गयी
वैकुण्ठ आदि लोकों में भी
तुम्हारे जन्म के कारण ही।
तभी तो वैकुण्ठ छोड़ कर
लक्ष्मी जी यहाँ नित्य निवास करें
परन्तु देखो, तुम्हारी गोपियाँ ये
भटक रहीं कैसे वन वन में।
प्राण समर्पित किये तुम्हारे चरणों में
वन में तुमको ढूंढ रही हैं
हमारे ह्रदय के स्वामी तुम ही
बिना मोल की हम दासी हैं।
नेत्रों से घायल किया तुमने हमें
विपत्तियों में हमारी रक्षा की
सभी के ह्रदय में वास तुम्हारा
केवल यशोदानंदन तुम नहीं ।|
यदुवंशशिरोमणि ! जो लोग भी
शरण तुम्हारी ग्रहण करते हैं
उन्हें छत्रछाया में लेकर
चरणकमल तुम्हारे अभय करते हैं।
हमारे प्रियतम !, चरणकमल वही
तुम रख दो हमारे सिर पर भी
चूर चूर करे मान और मद को
मन्द मन्द मुस्कान तुम्हारी।
हमारे प्यारे सखा, रूठो मत
प्रेम करो, तुम्हारी दास हम
दिखलाईये हम सबको अपना
सुंदर सांवला-सांवला मुखमंडल।
सौंदर्य, माधुर्य की खान जो
चरणकमलोँ में है आपके
सेवा करें लक्ष्मी भी उनकी
बछड़ों के पीछे तुम चलते उनसे।
ह्रदय हमारा है जल रहा
तुम्हारी विरह व्यथा की आग में
और बहुत सता रही हैं
तुम्हारे मिलन की आकांक्षा हमें।
शांत करो इस ज्वाला को
कितनी मधुर है वाणी तुम्हारी
उसका एक एक शब्द खींचता
अपनी और विद्वानों को भी।
उसी वाणी का रसास्वादन करके
हम गोपियाँ मोहित हो रहीं
अपना मधुर अधररस पिलाकर
जीवन दान दो हमें अभी।
प्रभु, लीला कथा तुम्हारी
अमृत स्वरुप हमारे लिए ये
वह तो जीवन सर्वस्व ही है
विरह से संताप हुए लोगों के लिए।
उसका गान किया कविओं ने
बड़े बड़े महात्माओं ने
सारे पाप ताप मिटाती वो
मंगल करे वो श्
रवणमात्र से।
वह परम मधुर, परम सुंदर
और है बहुत विस्तृत भी
जो गान करते हैं उसका
सबसे बड़े दाता हैं वो ही।
एक दिन वह भी था जब हम
हंसी और क्रीड़ाओं का तुम्हारी
बस ध्यान करने मात्र से
मग्न हो जाया करतीं थीं।
उनका ध्यान भी मंगलदायक है
उसके बाद मिले हम तुमसे
प्रेम की बातें करीं तुमने और
हृदयस्पर्शी ठिठोलियां कीं हमसे।
याद करतीं जब वो सभी बातें
मन को क्षुब्ध किये देतीं वे
और जब अपने सुकोमल चरणों से
तुम गोयें चराने निकलते।
तब सोचकर कि तुम्हारे ये चरण
कंकड़, तिनके की चोट से
कहीं कष्ट न पा रहे हों
बैचेन करे हमारे मन को ये।
और जब दिन ढल जाता
तब वापिस तुम घर आते
धूल पड़ी तुम्हारे मुखमंडल पर
नीली नीली अलकें हैं लटकें।
अपना ये सौंदर्य दिखा दिखा
प्रेम उत्पन्न करते ह्रदय में
प्रियतम, एक मात्र तुम्ही हो
हमारे दुखों को मिटाने वाले।
अधरामृत ये तुम्हारा
बढाने वाला मिलन के सुख को
बार बार उसे चूमती रहती
गाने वाली ये बांसुरी जो।
एक बार पी लिया जिसने इसे
उसकी आसक्तियां मिट गयीं
अब तो पीला दीजिये अपना
अधरामृत वो, हमें भी।
दिन में जब वन में जाते तुम
एक एक क्षण युग के समान लगे
संध्या के समें जब लौट आते तब
सुंदर मुखारविंद हम देखें।
उस समय पलकों का गिरना
हमारे लिए भार हो जाता
ऐसा जान पड़ता कि मूर्ख है
नेत्रों की पलकों को बनाने वाला।
पति, पुत्र, भाई बंधुओं को
छोड़कर तुम्हें मिलने आईं
अब तो बढ़ती जा रही ह्रदय में
मिलने की लालसा तुम्हारे प्रति।
मन अधिकाधिक मुग्ध हो रहा
ह्रदय भरा तुम्हारे प्रति प्रेम से
तुम्हारे लिए हम जी रही हैं
तुम्हारी हम हैं, जीवन तुम्हारे लिए।