शहर हो गये दूर गाँव से
शहर हो गये दूर गाँव से
शहर हो गये दूर गाँव से, बाग-बगीचे-क्यारी गुम।
आँगन में वो हँसती-खिलती बच्चों की किलकारी गुम।
रिश्तों के इस बियाबान में, मौसी-चाची-दादी गुम।
मिसरी-सी कानों में घुलती, नानी की वो कहानी गुम।
होली की वो हँसी-ठिठोली, रंग-भरी पिचकारी गुम।
नीम तले की शाम-बैठकी, रिश्तों की फुलवारी गुम।
घर के बीच दीवार उठ गयी, सुख-दुःख का बँटवारा गुम।
क्या बैठें डायनिंग टेबल पर ? पाँत लगी वो थाली गुम।
ताल-तलैया-नदी सूख गयी, लहरों की झलकारी गुम।
सावन के झूले-हिंडोले, चैता-पूर्बी-कजरी गुम।
दुल्हन विदा कार में होती, डोली कहार औ ' पालकी गुम।
बृहत् सिमटकर एकल हो गये, परिवारों की प्रणाली गुम।
मोबाईल - गूगल के युग में, हाथ लिखी वो पाती गुम।
पढ़-लिख हम विद्वान बन गये, घर-परिवार की थाती गुम।
भौतिकवाद की इस आँधी में, उजड़ी हर परिपाटी गुम।