Vijayanand Singh

Classics

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Vijayanand Singh

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शहर हो गये दूर गाँव से

शहर हो गये दूर गाँव से

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शहर हो गये दूर गाँव से, बाग-बगीचे-क्यारी गुम।

आँगन में वो हँसती-खिलती बच्चों की किलकारी गुम।

रिश्तों के इस बियाबान में, मौसी-चाची-दादी गुम।

मिसरी-सी कानों में घुलती, नानी की वो कहानी गुम।

होली की वो हँसी-ठिठोली, रंग-भरी पिचकारी गुम।

नीम तले की शाम-बैठकी, रिश्तों की फुलवारी गुम।

घर के बीच दीवार उठ गयी, सुख-दुःख का बँटवारा गुम।

क्या बैठें डायनिंग टेबल पर ? पाँत लगी वो थाली गुम।

ताल-तलैया-नदी सूख गयी, लहरों की झलकारी गुम।

सावन के झूले-हिंडोले, चैता-पूर्बी-कजरी गुम।

दुल्हन विदा कार में होती, डोली कहार औ ' पालकी गुम।

बृहत् सिमटकर एकल हो गये, परिवारों की प्रणाली गुम।

मोबाईल - गूगल के युग में, हाथ लिखी वो पाती गुम।

पढ़-लिख हम विद्वान बन गये, घर-परिवार की थाती गुम।

भौतिकवाद की इस आँधी में, उजड़ी हर परिपाटी गुम।



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