उठे जब भी कलम
उठे जब भी कलम
उठे जब भी कलम
तो समय के पन्नों पर
युगबोध की स्याही से
मानवता का नया इतिहास लिखे।
एहसासों की गीली मिट्टी से
भावनाओं में गुथकर
शब्दों का आकार लिए
नेह का अविरल प्रवाह लिखे।
उठे जब भी कलम
तो सीमाओं पर अहर्निश डटे
माँ भारती के वीर सपूतों का
गर्वोन्नत दीप्तिमान भाल लिखे।
आपादमस्तक मिट्टी में सने
अपने वजूद से जूझते
आकंठ कर्ज में डूबे
मौसम का क्रूर प्रहार झेलते
किसानों की अंतहीन पीड़ा
और उनके दर्द की ज़ुबान लिखे।
उठे जब भी कलम
तो दम तोड़ते युवा-स्वप्नों की
दारूण व्यथा लिखे।
और, तंत्र के हाथों दमित-भ्रमित
लोक की अंतहीन कथा लिखे।
उठे जब भी कलम
तो, निर्भयाओं की रक्तरंजित देह
और श्मशान में जलती
उनकी चिता की आग लिखे।
उठे जब भी कलम
तो, सभ्यजनों के प्रजातंत्र में
दुराचारियों-अपराधियों की जीत की
अनुपम-अतुलनीय कहानी लिखे।
उठे जब भी कलम
तो, जनता के स्वेद-रक्त सिंचित श्रम पर
ऐश्वर्य भोगते नेताओं-नौकरशाहों की
उठती गगनचुंबी इमारत लिखे।
उठे जब भी कलम
तो, अपराध और राजनीति के मेल से जन्मी
अनीति और अनाचार की
अनकही-अनसुनी कहानी लिखे।
उठे जब भी कलम
तो, सत्ता और कुर्सी के खेल में
ईमान, जमीर और नैतिकता की
सरेआम होती नीलामी लिखे।
उठे जब भी कलम
तो युवाओं की जुंबिश
मौजों की मचलती रवानी
और फौलाद बनते कंधों की
नयी उन्मत्त कहानी लिखे।
उठे जब भी कलम तो
लिखे अर्थ खो चुके शब्द
और शब्दों में छुपे हर्फ़ों के
सही मायने लिखे।
लिखे, तो जुल्म की आग में
सुलगती-जलती-धधकती
युग-युगीन प्रचंड मशाल लिखे।
लिखे, तो अपने समय की पीड़ा
और सत्य का उनवान लिखे।