अहल्या
अहल्या


मुझको प्रस्तर ही रहने दो।
हे रघुनंदन! प्रस्तर ही पूजे जाते हैं
फूलों की तो नियति सदा ही मसले जाना
दुख, पीड़ा, ये अश्रु किसे पिघला पाते हैं
दोषी, पीड़ित कौन यहाँ कब किसने जाना
अंतर्मन की इस पीड़ा को
सदियों-सदियों तक सहने दो।
मुझको प्रस्तर ही रहने दो।
शत-शत व्रत, उपवास, समर्पण माटी ही हैं
नर की कुंठा, द्वेष, दुराशा सहती नारी
आपस के दुर्योजन का हथियार बनी है
अपमानों से उपकृत रहना ही लाचारी
क्षण-क्षण रज में टूट-टूटकर
करुणा बन मुझको बहने दो
मुझको प्रस्तर ही रहने दो।
पीड़ित को ही अपराधी माना जाता है
कैसा तेरा जग है, कैसे नियम निराले
हाय!परायों का विष देना कब खलता है
किन्तु मृत्यु है जब शोषक बनते रखवाले
पुछी कब थी कभी किसी ने
मन की दुविधा को कहने दो।
मुझको प्रस्तर ही रहने दो।
भला करुंगी क्या अपना तन वापस पाकर
कहो, अगर फिर हुई तिरस्कृत तो क्या होगा
जिसने वचन भरे थे, उसने ही ठुकराया
प्रभु, बतलाओ क्या जीवन फिर वांछित होगा
शुष्क, निबल शाखा के जैसी
कालखंड पथ पर लहने दो।
मुझको प्रस्तर ही रहने दो।