ग़ज़ल
ग़ज़ल
पतझड़, सावन और महीना बीत गया पुरवाई का
मौला जाने कब बदलेगा मौसम ये तन्हाई का।
आँखों-आँखों में पढ़ लेना इश्क़ मोहब्बत की बातें
कुछ तो अफ़साने का डर है कुछ डर है रुसवाई का।
शोख़ जवानी को न देखे इधर-उधर की बात करे
दिल डूबे दरिया हो जाए उस ज़ालिम हरजाई का।
सुर्ख़ लबों से हँसकर उसने दिल की हाँ में हाँ भर दी
कितनी रातें रोए हैं तब दिन आया शहनाई का।
ये सारी दौलत ले लेना ख़ारों पर चलवा लेना
साँसें भी ले लेना पर मत लेना नाम जुदाई का।
महफिल में हर दिल मचला था सिसकी होंठों से निकली
जहन में ताजा है अब तक किस्सा उस अंगडाई का।
किस दफ़्तर में रपट लिखाऊँ, किस अफसर से हाल कहूँ
दिल की चोरी, रूठा-मटकी, उनके साथ लड़ाई का।