पौराणिक कथा - राजा हरिश्चंद्र
पौराणिक कथा - राजा हरिश्चंद्र
तप,त्याग और सदाचार क्या इतना शक्तिशाली हो सकता है,
कैसे एक साधारण इंसान देवता समान ही श्रेष्ठ हो सकता है,
ऐसे ही एक सत्य को, उजागर करती है, यह कथा पौराणिक,
जिसमें सत्यधर्म के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया जाता है।
जहांँ होती सत्य की चर्चा, वहांँ नाम आता राजा हरिश्चंद्र का,
जिसने कठिन परिस्थितियों में भी,साथ नहीं छोड़ा सत्य का,
करते थे पूर्ण हर कीमत पर उसे, एक बार जो ले लेते थे प्रण,
यही निष्ठा कारण बनती कई बार, बड़ी-बड़ी परेशानियों का।
अयोध्या के प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा सत्यव्रत के वो पुत्र महान,
तीनो लोक में फैला था यश इतना, देवता भी करते गुणगान,
जिससे देवताओं के राजा इंद्र, हरिश्चंद्र से करने लगे थे इर्ष्या,
उकसाया विश्वामित्र को,लेने हेतु राजा हरिश्चंद्र का इम्तिहान।
इंद्र के कहने पर विश्वामित्र ने, हरीशचंद्र को स्वप्न दिखलाया,
योगबल माया ऐसी स्वप्न में राजा ने, संपूर्ण राज्य दान किया,
अगले दिन ही पहुंँच गए महर्षि अयोध्या अपना राज्य मांगने,
स्वप्न के दान को स्वीकार कर, राजा ने राज पाठ सौंप दिया।
संपूर्ण पृथ्वी के सम्राट राजा हरिश्चंद्र अब कुछ ना था उनका,
इसलिए दान की हुई भूमि पर, अब रहना उचित ना समझा,
राज्य छोड़, पत्नी पुत्र के साथ काशी के लिए किया प्रस्थान,
काशी पृथ्वी से अलग भगवान शिव के त्रिशूल का है हिस्सा।
निकलने लगे आयोध्या से जब हरिश्चंद्र, विश्वामित्र बोल पड़े,
जप, तप और दान बिना दक्षिणा के, कभी सफल नहीं होते,
इतना बड़ा राज्य कर दान, हजार सोने की मोहरे देनी होगी,
कहांँ से देते राजा, राज्य के साथ तो धन भी दान हो चुके थे।
एक महीने का वक्त्त मांगकर महर्षि से, आ गए राजा काशी,
दक्षिणा का ऋण चुकाने को पत्नी बन गई ब्राह्मण की दासी,
सत्य धर्म निभाने हेतु, बेच दिया पत्नी और पुत्र को, राजा ने,
स्वयं को बेेच चान्डाल हाथों, अर्जित की मोहरे दक्षिणा की।
सेवक बने राजा हरिश्चंद्र, करते अब श्मशान की चौकीदारी,
कर लेकर मुर्दा जलाने की, उस चांडाल ने सौंपी जिम्मेदारी,
एक दिन सांँप के काटने से, हरिश्चंद्र के पुत्र की हो गई मृत्यु,
मृत्यु प्राप्त पुत्र का देह लेकर उसी श्मशान पहुंँची मांँ बेचारी।
पुत्र को अग्नि देने जा रही थी जब, अनंत पीरा मन में लेकर,
हरिश्चंद्र आ पहुंँचे वहांँ, बोले देना होगा तुम्हें इसके लिए कर,
बेचारी रानी के पास तो, पुत्र देह ढकने का कफ़न तक न था,
महाराज ये तो आप ही का पुत्र है, कहने लगी गिड़गिड़ाकर।
दु:ख हुआ राजा हरिश्चंद्र को बड़ा, पर धर्म के आगे थे विवश,
रानी मैं तो यहांँ चांडाल का सेवक हूंँ,समझो मेरी कशमकश,
बिना कर लिए तुम्हें मुर्दा जलाने की,नहीं दे सकता इजाज़त,
फूट-फूट रोती बोली रानी, मेरे पास, पहनी हुई साड़ी है बस।
आप इसी से ले लें आधा, कहकर अपनी साड़ी फाड़ने चली,
तभी वहांँ प्रकट हुए, विश्वामित्र और देवताओं की पूरी टोली,
महर्षि ने हरिश्चंद्र से कहा पुत्र जीवित है आपका ये मरा नहीं,
ये स्वप्न,राज्य दान, आपका इम्तिहान लेने हेतु माया थी मेरी।
विषम परिस्थितियों में भी हरिश्चंद्र ने,सत्य का साथ न छोड़ा,
सत्यधर्म परायणता,निष्ठा से सभी देवताओं को प्रसन्न किया,
इतनी कठिन परीक्षा में कभी विचलित ना हुए राजा हरिश्चंद्र,
सत्य को जीवन में धारण करने का, आदर्श स्थापित किया।
पुत्र रोहिताश्व भी जीवित हो गए,देवताओं की अमृत वर्षा में,
अपनी कर्तव्य निष्ठा से, राजा हरिश्चंद्र अमर हुए इतिहास में,
महर्षि विश्वामित्र ने लौटा दिया, हरिश्चंद्र को राज पाठ सारा,
देवतागण प्रसन्न हो बोले, जीवन बिताएं आप सदेह स्वर्ग में।
राजा हरिश्चंद्र बोले प्रथम तो मुझे स्वामी से लेनी होगी आज्ञा,
तभी धर्मराज बोल पड़े मैंने ही चांडाल रूप था धारण किया,
तुम अपनी परीक्षा में पूर्ण उत्तीर्ण, सहज जा सकते हो स्वर्ग,
इसके साथ मैंने तुम्हें इस सेवा से, सदैव के लिए मुक्त किया।
किंतु राजा हरिश्चंद्र प्रजा की सोचकर, हो गए बड़े व्याकुल,
अपनी प्रजा को ऐसे छोड़कर,स्वर्ग ना जा सकता बिल्कुल,
गर मेरी प्रजा भी मेरे साथ, स्वर्ग जाने को हो जाएगी तैयार,
आपत्ति नहीं, अन्यथा कतई स्वर्ग में रहने का नहीं इच्छुक।
प्रजा से ही तो वज़ूद मेरा, इस प्रजा से ही तो है मेरी पहचान,
इंद्र बोले कैसे जा सकते स्वर्ग सबके कर्म नहीं हैं एक समान,
तब हरिश्चंद्र बोले मेरे जिन कर्मों के लिए आप भेज रहे स्वर्ग,
मेरे उन कर्मों का फल, मेरी समस्त प्रजा में बांटें एक समान।
राजा के ऐसे विचार जानकर देवराज ने "तथास्तु" कह दिया,
तब पत्नी और प्रजा सहित,हरिश्चंद्र ने स्वर्ग में प्रस्थान किया,
इधर रोहिताश्व को अयोध्या के, राज सिंहासन पर बिठा कर,
महर्षि ने उसे समस्त भूमि का, एकछत्र अधिपति बना दिया।
