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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२२९; भगवान का प्रकट होकर गोपियों को सांत्वना देना

श्रीमद्भागवत -२२९; भगवान का प्रकट होकर गोपियों को सांत्वना देना

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श्री शुकदेवजी कहते हैं, परीक्षित 

गोपियाँ विरह के आवेश में 

दुखी होकर प्रलाप करने लगीं

फूट फूटकर रोने लगीं वे ।


ठीक उसी समय उनके बीच में 

भगवान श्री कृष्ण प्रकट हो गए 

मंद मंद मुस्कान थी मुख पर 

पीताम्बर धारण किए हुए ।


कोटि कोटि कामों से भी सुंदर 

मनोहर श्यामसुंदर को देखकर

आनंद से खिल उठे नेत्र उनके 

देखें गोपियाँ उन्हें प्रेम में भरकर ।


सब की सब उठ खड़ी हुईं 

जैसे प्राणहीन शरीर में उनके 

प्राणों का संचार हो गया 

स्फूर्ति आ गयी एक एक अंग में ।


एक गोपी ने बड़े प्रेम से 

श्री कृष्ण के करकमलों को 

अपने दोनों हाथों में ले लिया 

और सहलाने लगीं उनको ।


दूसरी ने उनके भुजदण्ड को 

रख लिया कंधे पर अपने 

चबाया हुआ पान कृष्ण का 

तीसरी ने रख लिया हाथ में ।


कुछ गोपियाँ प्रेम विह्वल हो 

ताकने लगीं श्री कृष्ण को 

मुखकमल का नयनों से अपने 

रस पान करने लगीं वो ।


परंतु उनकी मुख माधुरी का 

निरंतर पान करते रहने पर भी 

गोपियाँ पूरी तरह हृदय से 

कभी तृप्त नहीं होती थीं ।


कुछ गोपियों ने नेत्रों के रास्ते 

हृदय में उतार लिया कृष्ण को 

मन ही मन आलिंगन कर उनका 

परमानन्द में मगन हो गयीं वो ।


विरह का जो दुःख हुआ था उन्हें 

उससे भी वे मुक्त हो गयीं

और शांति के समुंदर में 

सब डूबने उतराने लगीं ।


भगवान की थी छटा निराली 

बैठे गोपियों के बीच में 

व्रजसुंदरियों को साथ में लेकर 

चले पुलिन पर यमुना जी के ।


शीतल सुगंधित वायु चल रही वहाँ 

मतवाले भीरें भी मँडरा रहे 

निराली छटा चाँदनी की वहाँ 

शरदपूर्णिमा के चन्द्रमा थे वे ।


उस पुलिन को यमुना जी ने 

स्वयं अपनी लहरों के हाथों 

बालू का सुकोमल सेज बना दिया 

भगवान के लीला करने को ।


अपनी ओढ़नी को गोपियों ने 

बिछा दिया श्री कृष्ण के लिए 

प्रेम देख गोपियों का उस समय 

बैठ गए ओढ़नी पर वे ।


बड़े बड़े योगेश्वर अपनी 

योगसाधना से पवित्र किए हुए 

हृदय में जिनके लिए आसन की 

कल्पना करते हैं, फिर भी वे ।


अपने हृदय सिंहासन पर 

श्री कृष्ण को बैठा नहीं पाते 

वही सर्वज्ञ भगवान कृष्ण 

गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गए ।


चरणकमल उनका किसी ने 

रख लिया अपनी गोद में 

और गोद में रख लिया था 

करकमलों को किसी ने ।


उनके समर्पण का आनंद लेते हुए 

कहें, कितना सुकुमार मधुर ये 

फिर कृष्ण के छुप जाने से रूठकर 

उनसे ये कहने लगीं वे ।


कहें, लोग कुछ ऐसे होते 

प्रेम करने वालों को ही प्रेम करें 

और कुछ प्रेम करें उनको भी 

जो उनसे प्रेम ना करते ।


परन्तु कुछ ऐसे भी होते 

प्रेम ना करें जो दोनों से ही 

प्यारे, इन तीनों में से 

तुमहे कौन सा अच्छा लगे ।


श्री कृष्ण कहें, प्रिय गोपियों 

प्रेम करने वाले से जो प्रेम करें 

उनका तो सारा उद्योग ही 

है बस स्वार्थ के लिए ।


लेन देन मात्र है बस ये 

सौहार्द ना उसमें, ना धर्म कोई 

स्वार्थ के अतिरिक्त उसका 

और कोई प्रायोजन भी नहीं ।


जो लोग प्रेम करते हैं 

प्रेम ना करने वालों को भी 

उनके व्यवहार में निश्छल सत्य 

और है पूर्ण धर्म भी ।


सौहार्द और हितेषिता से

हृदय भरा रहता उनका 

करुणाशील स्वभाव जैसे कि

सज्जन पुरुष, माता और पिता ।


जो प्रेम करने वालों से 

भी प्रेम करते नहीं हैं 

ना करने वालों की तो बात ही क्या 

चार प्रकार के वो होते हैं ।


एक तो वो जो मस्त रहते हैं 

अपने ही स्वरूप में 

कभी द्वैत भासता ही नहीं 

उन लोगों की दृष्टि में ।


दूसरे जिन्हें द्वैत तो भासता है 

परंतु कृत्य कृत्य हो चुके 

और कोई भी प्रयोजन 

उनको नहीं है किसी से ।


तीसरे वो जो जानते ही नहीं 

कि कोई प्रेम करता है उनसे 

चीथे वो जो जान बूझकर

द्रोह करते हित करने वालों से ।


मैं तो प्रेम करने वालों से भी 

पूरा व्यवहार नहीं करता प्रेम का 

चित्वृति मुझमें लगी रहे उनकी 

ऐसा केवल इसलिए ही करता ।


जैसे निर्धन पुरुष को कभी 

धन मिल जाए बहुत सा 

और फिर खो जाए, तो उसका मन 

धन की चिंता से भर जाता ।


वैसे ही मैं भी मिल मिलकर 

छिप जाता हूँ बीच बीच में 

ताकि तुम्हारी मनोवृति 

सदा मुझमें ही लगी रहे।


लोकमर्यादा, वेदमार्ग और 

सम्बन्धियों को छोड़ा मेरे लिए तुमने 

छिप गया था इसी प्रेम की लिए 

दोष मत निकालो मेरे में।


तुम सब हो मेरी प्यारी 

और मैं प्यारा तुम सब का 

मेरे लिए ही तुम सबने 

गृहस्थी की बेड़ियों को तोड़ है डाला।


जिन्हें बड़े बड़े योगी भी 

सहज तोड़ पाते नहीं हैं 

मुझसे तुम्हारा ये मिलना 

सर्वथा निर्मल और निर्दोष है।


यदि मैं अपने शरीर से 

अनंतकाल तक तुम्हारे प्रेम का 

बदला चुकाना भी चाहूँ 

तो भी मैं चुका नहीं सकता।


जन्म जन्म के लिए ऋणी तुम्हारा 

मुझे उऋण कर सकती तुम सभी 

अपने सौम्य स्वाभाव से 

परन्तु रहूंगा तुम्हारा ऋणी ही।


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