श्रीमद्भागवत - ३१४; क्रियायोग का वर्णन
श्रीमद्भागवत - ३१४; क्रियायोग का वर्णन
उद्धव जी ने पूछा, श्री कृष्ण
क्रियायोग का आश्रय लेकर जो
भक्तजन जिस प्रकार, जिस उद्देश्य से
अर्चना पूजा करते आपकी वो ।
आप उस क्रियायोग का
हमारे लिए वर्णन कीजिए
नारद जी, व्यास जी और बृहस्पति आदि
बड़े बड़े मुनि भी कहते ।
कि क्रियायोग के द्वारा आपकी
आराधना ही मनुष्यों के लिए
परम् कल्याण का साधन है
मुखारविंद से निकला ये आपके ।
पुत्र भृगुआदि ऋषियों को दिया
आपसे ग्रहण कर ब्रह्मजी ने इसे
अपनी अर्द्धांगिनी पार्वती जी को
उपदेश दिया इसका शंकर जी ने ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों और
ब्रह्मचारी, गृहस्थ आदि आश्रमों के लिए
ये परम् कल्याण कारी है
श्रेष्ठ साधना पद्धति ये सबसे ।
जगदीश्वरों के भी ईश्वर आप हैं
भक्त मैं आपके चरणकमलों का
कर्मबन्धन से मुक्त करने वाली
वर्णन कीजिए मुझे इस विधि का ।
भगवान श्री कृष्ण कहें, उद्धव जी
कर्मकाण्ड का विस्तार है इतना
कि उसकी कोई सीमा नहीं
थोड़े में वर्णन करता हूँ इसका ।
वैदिक, तांत्रिक और मिश्रित
तीन विधियाँ मेरी पूजा की
जो अनुकूल लगे मेरे भक्त को
उसी विधि से आराधना करे मेरी ।
शास्त्रोक्त विधि से, यज्ञोपवीत संस्कार से
संस्कृत होकर द्विज्त्व प्राप्त करे
फिर श्रद्धा भक्ति के साथ
सुनो कि पूजा वो करे कैसे ।
मेरी पूजा करे वो अपने
पिता एवं अपने गुरु में
वेदों में, अग्नि में, सूर्य में, जल में
आराधना मेरी करे चाहे किसी में ।
स्नान से शरीर शुद्धि करके
सन्ध्यावन्दन नित्य कर्म करे
वैदिक और तांत्रिक विधियों से
फिर वो मेरी पूजा करे ।
पत्थर, लकड़ी, धातु, मिट्टी, -चंदन आदि
चित्रमय, बालुकामय, मणिमय, मनोमयी
आठ प्रकार की मेरी मूर्ति होतीं
चल अचल भेद से दो प्रकार कीं ।
अचल प्रतिमा को पूजन में प्रतिदिन
आह्वान, विसर्जन नहीं करना चाहिए
चल प्रतिमा में विकल्प है
चाहे करे और चाहे ना करे ।
परंतु बालुकामयी प्रतिमा में तो
आह्वान, विसर्जन प्रतिदिन ही करे
मिट्टी, चंदन या चित्रमयी प्रतिमा को
स्नान ना कराते बस मार्जन करते ।
प्रसिद्ध पदार्थों से प्रतिमा की पूजा करे
परंतु निष्काम भक्त जो मेरे
वह अनायास प्राप्त पदार्थों से
या भावनामात्र से ही पूजा करते ।
अग्नि में पूजा करनी हो तो
हवन सामग्री से आहुति दे
सूर्य को प्रतीक मानकर चले तो
अर्धयदान और उपस्थान हैं प्रिय ।
जल में तर्पण से मेरी उपासना करे
और भक्त यदि कोई मेरा
श्रद्धा से बस जल ही चढ़ाता
बड़े प्रेम से स्वीकार मैं करता ।
और जो अभक्त कोई
निवेदन करे सामग्री बहुत सी
संतुष्ट नहीं होता हूँ मैं
इस बहुत सी सामग्री से उसकी ।
कुश बिछाकर आसन पर बैठे
पूर्व या उत्तर की और मुँह करे
यदि प्रतिमा अचल हो तो
बैठना चाहिए उसके सामने ।
मूर्ति में मंत्रन्यास करे
कलश और प्रोक्षपात्र से पूजा करे
प्रोक्षपात्र के जल से ही सामग्री
और अपने शरीर का प्रोक्षण करे ।
पाध, अर्ध्य और आचमन के लिए
पाद्य पात्रों में कलश का जल भरे
पाद्य पात्र में दूब, कमल, चंदन लगाये
पूजा की सामग्री डाले उसमें ।
अर्ध्य पात्र में गंध, पुष्प, जों
सरसों आदि सामग्री डाले
आचमन पात्र में जयफल, लौंग
आदि सामग्री को वो डाले ।
हृदयमंत्र, शिरोमंत्र, और शिखा मंत्र
से अभिमंत्रित करे क्रमश तीनों को
अंत में तीनों पात्रों का
गायत्रीमंत्र से अभिमंत्रित करे वो ।
इसके बाद प्राणायाम के द्वारा
प्राणवायु को शुद्ध करे
और शरीररूप अग्नि को वो
भावनाओं द्वारा शुद्ध करे
मेरी जीवकला का ध्यान करे हृदय में
बड़े बड़े ऋषि मुनि ओंकार के
अकार, उकार, मकार, विन्द, नाद के अंत में
उसी जीवकला का ध्यान हैं करते ।
वह जीवकला आतमस्वरूपनी है
उसके तेज से अंतकरण भर ज
ाये जब
मानसिक उपचारों से मन ही मन
उसकी पूजा करनी चाहिए तब ।
फिर मेरा आह्वान करे और
स्थापना करे प्रतिमा आदि में
मंत्रों द्वारा अंगन्यास कर
मेरी पूजा करे फिर उसमें ।
फिर ये सोचे कि मेरे आसन के
चारों कोनों के चारों पाये जो
धर्म, ज्ञान, वैराग्य और
ऐश्वर्या ही, चारों हैं वो तो ।
अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य
ये चार चारों दिशाओं में डंडे हैं
सत्व, रज, तम पटरियों की बनी पीठ है,
उसपर नौ शक्तियाँ विराजमान हैं ।
आसन पर एक अष्टदल कमल है
अत्यंत प्रकाशमान कर्णिका उसकी
ऐसा कर वैदिक और तांत्रिक
विधि से पूजा करे मेरी ।
सुदर्शन चक्र, पाँचजन्य शंख
कोमोद की गदा, खड्ग, वाण, धनुष जो
और हल, मूसल आदि आयुध हैं
दिशाओं में पूजे वो उनको ।
कौस्तुभमणि , वैजन्तीमाला
और श्री वत्स चिन्ह की
वक्षस्थल पर यथास्थान पूजा करे
आठ दिशाओं में करे पार्षदों की ।
नन्द, सुनन्द, प्रचंड, चंड, महाबल
बल, कुमुद, कुमुदेक्षण सात पार्षद मेरे
दुर्गा, विनायक, व्यास और विश्वक्सेन की
चारों कोनों में स्थापना करे ।
फिर उनका पूजन कर वह
सामने पूजा करे गरुड़ की
वायीं और गुरु की पूजा करे और
स्थापना करे फिर लोकपालों की ।
इन्द्रादि आठ लोकपाल जो
पूर्व दिशा में करे स्थापना इनकी
प्रोक्षण, अर्धायदान आदि क्रम से
उनकी पूजा फिर करनी चाहिए ।
सुगंधित वस्तुओं द्वारा सुवासित जल से
रोज़ मुझे स्नान कराये
और मेरा सिंगार करे
वस्त्र, माला, चंदन आदि से ।
चंदन, पाद्य, धूप दीप आदि
समर्पित करे वो मुझे
हो सके तो गुड, पूरी, खीर आदि
नैवेद्यों का भोग लगावे ।
पंचामृत आदि से स्नान कराए
सुगंधित पदार्थों का लेप करे
दर्पण दिखाए, भोग लगाए
पूजा से वहाँ अग्नि स्थापना करे ।
हाथ की हवा से अग्नि प्रज्वलित करे
प्रोक्षण करे उसका प्रोक्षण पात्र के जल से
ध्यान कर पूजा करे फिर
मेरी मूर्ति का अग्नि में ।
ऐसा ध्यान करे कि मेरी
मूर्ति दमक रही सोने समान है
शंख, चक्र, गदा, पदम् विराजमान उसपर
पीला वस्त्र फहरा रहा है ।
सिर पर मुकुट और वक्षस्थल पर
श्री वत्स का चिन्ह शोभा दे
वनमाला लटक रही घुटने तक
कौस्तुभमणि शोभा दे गले में ।
“ॐ नमोंनारायणा “ ये
अष्टाक्षर मंत्र से हवन करे
आहुति दे और हवन करे
और भी कई मंत्रों से ।
आठों दिशाओं में पार्षदों की पूजा करे
बैठ जाए सम्मुख प्रतिमा के
नारायण स्मरण करे और
मूल मंत्र का ही जाप करे ।
भगवान को आचमन करके और प्रसाद को
निवेदन करे विस्वकसेन को
पुष्पांजलि समर्पित करे
अपने सारे इष्टदेवों को ।
गाकर मेरी लीला वर्णन करे
तन्मय हो जाए वो मुझमें
स्तोत्रों से मेरी स्तुति कर
“ प्रसन्न हों मुझपर “ ये प्रार्थना करे ।
दण्डवत् प्रणाम करे मुझको
सिर मेरे चरणों में रख दे
कहे “ संसार सागर में डूब रहा
आप मेरी रक्षा कीजिए “।
यदि विसर्जन करना हो तो
ऐसी भावना करे कि प्रतिमा से
एक दिव्य ज्योति निकली है
लीन हो गई वो मेरी हृदय ज्योति में ।
बस यही विसर्जन की विधि है
और जो लोग इस प्रकार से
वैदिक, तांत्रिक क्रिया के द्वार
करते हैं पूजा मेरी वे ।
लोक परलोक में अभीष्ट सिद्धि
प्राप्त होती है उस मनुष्य को
और भी बहुत कुछ है
वो जो करना चाहे तो ।
सुंदर मंदिर बनवाए मेरा
स्थापित करे मेरी प्रतिमा को
फूलों का बगीचा लगाये और
पर्व, उत्सवों की व्यवस्था करे वो ।
मेरी मूर्ति की प्रतिष्ठा से
पृथ्वी का एक छत्र राज्य मिलता
मंदिर निर्माण से त्रिलोकी का राज्य
ब्रह्मलोक पूजा व्यवस्था के द्वारा ।
जो वो तीनों ही करता वो
मेरी समानता प्राप्त होती उसे
निष्काम भाव से जो पूजा करे मेरी
प्राप्त कर लेता वो स्वयं मुझे ।