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Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत - ३१३: पुरुरवा की वैराग्योक्ति

श्रीमद्भागवत - ३१३: पुरुरवा की वैराग्योक्ति

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भगवान कृष्ण कहते हैं उद्धव

यह मनुष्य शरीर है जो

मेरे स्वरूप, ज्ञान और मेरी

प्राप्ति का साधन है वो तो ।


योनियाँ, गतियाँ त्रिगुणमयी हैं जीवों की

जीव ज्ञाननिष्ठा के द्वारा उनसे

सदा के लिए मुक्त हो जाता

माया मात्र ही, वास्तविक नहीं हैं गुण ये ।


ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष

उन गुणों के बीच में रहने पर भी

व्यवहार करने पर भी उनके द्वारा

वो उन गुणों से बंधता नहीं ।


जो आसक्त विषयों के सेवन में

उदर पोषण में ही लगे हुए

साधारण पुरुषों की चाहिए कि

उन असत् पुरुषों का संग कभी ना करे ।


अंधकार में भटकना पड़ता उसे

कथा सुनाऊँ इस बारे में तुमको

उर्वशी के विरह में बेसुध हो गया

परम् यशस्वी पुरुरवा पहले तो ।


फिर शोक हट जाने पर उसे

बड़ा वैराग्य हुआ और उसने

एक ये गाथा गायी थी

दौड़ रहा जब उर्वशी के पीछे ।


नग्न होकर पागल की भाँति

दौड़ा भागती उर्वशी के पीछे

अत्यंत विह्वल हो गया और

कहने लगा वो उर्वशी से ।


देवी, तुम निष्ठुर हृदय हो

ठहर जाओ थोड़ी देर के लिए

उर्वशी ने उसे विह्वल कर दिया

तृप्ति नहीं हुई थी उन्हें ।


वे क्षुब्ध विषयों के सेवन में

इतने डूब गये थे कि उन्हें

वर्षों की रात्रियाँ ना आती जाती मालूम पड़ीं

और फिर कहा पुरुरवा ने ।


हाय, मेरी मूढ़ता तो देखो

कामवासना ने कलुषित कर दिया मुझे

ना जाने कितने वर्ष खो दिये

मोह इतना बढ़ गया था मन में ।


जिसने मुझ पुरुरवा स्म्राट को

एक खिलौना बना दिया स्त्रियों का

मुझे छोड़ जब जाने लगी वो

नंग धडंग मैं उसके पीछे चला ।


फिर मुझमें प्रभाव तेज और

स्वामित्व भला कैसे रह सकता

उसकी सारी विद्या व्यर्थ है

स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया ।


तपस्या, त्याग और शास्त्राभयास से भी

मुझे लाभ नहीं है कोई

और निष्फल हैं मेरे ये

एकांतसेवन और मौन भी ।


हानि लाभ का अपने पता ना मुझे

पंडित जानूँ अपने को फिर भी

मुझ मूर्ख को धिक्कार है

वासनाएँ तृप्त ना हुईं मेरी ।


भगवान को छोड़ ऐसा कौन है

जो मुझे उनके फंदे से निकाल सके

वैदिक सूत्र के वचनों द्वारा

उर्वशी ने तो समझाया भी था मुझे ।


परंतु बुद्धि मारी गई थी मेरी

मन का मोह तब भी न गिरा था

इंद्रियाँ ही जब मेरे वश में नहीं तो

तब मैं ये कैसे समझता ।


रस्सी का स्वरूप ना जानकर

सर्प की कल्पना कर रहा जो

और उसी से दुखी हो रहा

तो दोष क्यों दें रस्सी को ।


इसलिए उस उर्वशी ने

कुछ भी बिगाडा नहीं मेरा

क्योंकि अजितेन्द्रिय होने के कारण

ये अपराध तो है बस मेरा ।


माता पिता का यह शरीर

अथवा संपत्ति ये पत्नी की

आग का ईंधन है ये या

वस्तु स्वामी की मोल ली हुई ।


कुत्ते और गीधों का भोजन है

अपना कहें इसे अथवा सुहृदय संबंधियों का

बहुत सोचने विचारने पर भी

इसका कोई निश्चय नहीं होता ।


यह शरीर मल मूत्र से भरा

इसलिए अत्यंत अपवित्र ये

इसका अंत यही है कि इसे

पक्षी खाकर विष्ठा कर दे ।


इसके सड़ जाने पर इसमें

कीड़े पड़ जाते हैं या इसे

जला देते है

ं तो फिर

राख का एक ढेर हो जाता ये ।


लट्टू हो जाते ऐसे शरीर पर

और लोग फिर ये हैं कहते

अरे, मेरी स्त्री कितनी सुंदर है

और मनोहर मुस्कान इसकी ये ।


यह शरीर, त्वचा, , रुधिर,

मज्जा और हड्डियों का ढेर है

और मलमूत्र और पीव से

पूरा का पूरा भरा हुआ है ।


यदि मनुष्य इसमें रमता है

तो कीड़ों और उसमें अंतर ही क्या

इसलिए विवेकी पुरुषों को चाहिए कि

संग ना करे स्त्रीलंपट पुरुषों का ।


विषय और इंद्रियों के संयोग से ही

होता है विकार मन में

जो वस्तु देखी सुनी ना गई हो

विकार ना हो मन में उसके लिए ।


विषयों के साथ इंद्रियों का

नहीं जो होने देता

मन शांत हो जाता है

सर्वथा निश्चल होकर उसका ।


अतः वाणी, कान और मन आदि से

संग स्त्रियों और स्त्रीलंपट का

कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि

इंद्रियाँ और मन नहीं विश्वसनीय ।


भगवान कृष्ण कहते हैं उद्धव

जब पुरुरवा के मन में

इस प्रकार उद्ग़ार उठने लगे

उर्वशीलोक त्याग दिया उसने ।


ज्ञानोदय होने के कारण

माया मोह जाता रहा उसका

अपने हृदय में आत्मस्वरूप से

मेरा साक्षात्कार कर लिया ।







बुद्धिमान पुरुष को चाहिए

कि वो पुरुरवा की भाँति

कुसंग छोड़, सत्पुरुषों का संग करे

नष्ट हो फिर मन की आसक्ति ।


संत पुरुषों का लक्षण ये है कि

किसी वस्तु की अपेक्षा ना होती उन्हें

उनका चित्त मुझमें लगा रहता

शांति का समुंदर उनके हृदय में ।


सदा, सर्वदा, सर्वत्र सब में

भगवान का ही दर्शन करते वो

लेश भी नहीं होता अहंकार का

संभावना कहाँ फिर ममता की तो ।


सर्दी - गर्मी, सुख - दुख आदि

द्वन्दों में एकरस हैं रहते

वैदिक, मानसिक, शारीरिक पदार्थ

किसी का भी परिग्रह नहीं रखते ।


उनके सौभाग्य की महिमा कौन कहे

लीला कथाएँ मेरी उनके पास सर्वदा

परम् हितकारी हैं होती

मनुष्यों के लिए मेरी कथा ।


जो उसका सेवन करते हैं

पाप ताप उनके धुल जाते

श्रद्धा से श्रवण करे जो उनको

वो मेरे परमधाम को पाते ।


भक्ति मेरी प्राप्त हो उन्हें

विशुद्ध आत्मा स्वरूप है मेरा

साक्षात परब्रह्म हूँ मैं और

भक्ति मिले जिसे वो संत हो गया ।


अब और कुछ मिलना शेष ना हो उसे

जिसने शरण ग्रहण की उन संत पुरुषों भी

संसारमय कर्मजड़ता आदि

सर्वथा निवृत हों उसकी ।


ब्रह्मवेता या शांत संत ही

एकमात्र आश्रय हैं उनके

जो इस संसार सागर में

डूब और उतरा हैं रहे ।


अन्न से जैसे प्राणियों की रक्षा हो

दीन दुखियों का परम् रक्षक मैं जैसे

धर्म ही एकमात्र पूँजी है

मनुष्यों के लिए परलोक में जैसे ।


जो संसार से भयभीत हैं

परम् आश्रय संतजन उनके लिए

संत पुरुष अंतरदृष्टि देते

भगवान को देखने के लिए ।


संत अनुग्रहशील देवता हैं

हितेषी, सुहृदय संत आपके

अपने प्रियतम आत्मा संत हैं

विद्यमान मैं ही संत रूप में ।


आत्मसाक्षात्कार होते ही

पुरुरवा की मिट गई सारी आसक्तियाँ

आत्माराम हो स्वच्छंद रूप में

पृथ्वी पर विचरण करने लगा ।


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