श्रीमद्भागवत - ३१३: पुरुरवा की वैराग्योक्ति
श्रीमद्भागवत - ३१३: पुरुरवा की वैराग्योक्ति
भगवान कृष्ण कहते हैं उद्धव
यह मनुष्य शरीर है जो
मेरे स्वरूप, ज्ञान और मेरी
प्राप्ति का साधन है वो तो ।
योनियाँ, गतियाँ त्रिगुणमयी हैं जीवों की
जीव ज्ञाननिष्ठा के द्वारा उनसे
सदा के लिए मुक्त हो जाता
माया मात्र ही, वास्तविक नहीं हैं गुण ये ।
ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष
उन गुणों के बीच में रहने पर भी
व्यवहार करने पर भी उनके द्वारा
वो उन गुणों से बंधता नहीं ।
जो आसक्त विषयों के सेवन में
उदर पोषण में ही लगे हुए
साधारण पुरुषों की चाहिए कि
उन असत् पुरुषों का संग कभी ना करे ।
अंधकार में भटकना पड़ता उसे
कथा सुनाऊँ इस बारे में तुमको
उर्वशी के विरह में बेसुध हो गया
परम् यशस्वी पुरुरवा पहले तो ।
फिर शोक हट जाने पर उसे
बड़ा वैराग्य हुआ और उसने
एक ये गाथा गायी थी
दौड़ रहा जब उर्वशी के पीछे ।
नग्न होकर पागल की भाँति
दौड़ा भागती उर्वशी के पीछे
अत्यंत विह्वल हो गया और
कहने लगा वो उर्वशी से ।
देवी, तुम निष्ठुर हृदय हो
ठहर जाओ थोड़ी देर के लिए
उर्वशी ने उसे विह्वल कर दिया
तृप्ति नहीं हुई थी उन्हें ।
वे क्षुब्ध विषयों के सेवन में
इतने डूब गये थे कि उन्हें
वर्षों की रात्रियाँ ना आती जाती मालूम पड़ीं
और फिर कहा पुरुरवा ने ।
हाय, मेरी मूढ़ता तो देखो
कामवासना ने कलुषित कर दिया मुझे
ना जाने कितने वर्ष खो दिये
मोह इतना बढ़ गया था मन में ।
जिसने मुझ पुरुरवा स्म्राट को
एक खिलौना बना दिया स्त्रियों का
मुझे छोड़ जब जाने लगी वो
नंग धडंग मैं उसके पीछे चला ।
फिर मुझमें प्रभाव तेज और
स्वामित्व भला कैसे रह सकता
उसकी सारी विद्या व्यर्थ है
स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया ।
तपस्या, त्याग और शास्त्राभयास से भी
मुझे लाभ नहीं है कोई
और निष्फल हैं मेरे ये
एकांतसेवन और मौन भी ।
हानि लाभ का अपने पता ना मुझे
पंडित जानूँ अपने को फिर भी
मुझ मूर्ख को धिक्कार है
वासनाएँ तृप्त ना हुईं मेरी ।
भगवान को छोड़ ऐसा कौन है
जो मुझे उनके फंदे से निकाल सके
वैदिक सूत्र के वचनों द्वारा
उर्वशी ने तो समझाया भी था मुझे ।
परंतु बुद्धि मारी गई थी मेरी
मन का मोह तब भी न गिरा था
इंद्रियाँ ही जब मेरे वश में नहीं तो
तब मैं ये कैसे समझता ।
रस्सी का स्वरूप ना जानकर
सर्प की कल्पना कर रहा जो
और उसी से दुखी हो रहा
तो दोष क्यों दें रस्सी को ।
इसलिए उस उर्वशी ने
कुछ भी बिगाडा नहीं मेरा
क्योंकि अजितेन्द्रिय होने के कारण
ये अपराध तो है बस मेरा ।
माता पिता का यह शरीर
अथवा संपत्ति ये पत्नी की
आग का ईंधन है ये या
वस्तु स्वामी की मोल ली हुई ।
कुत्ते और गीधों का भोजन है
अपना कहें इसे अथवा सुहृदय संबंधियों का
बहुत सोचने विचारने पर भी
इसका कोई निश्चय नहीं होता ।
यह शरीर मल मूत्र से भरा
इसलिए अत्यंत अपवित्र ये
इसका अंत यही है कि इसे
पक्षी खाकर विष्ठा कर दे ।
इसके सड़ जाने पर इसमें
कीड़े पड़ जाते हैं या इसे
जला देते है
ं तो फिर
राख का एक ढेर हो जाता ये ।
लट्टू हो जाते ऐसे शरीर पर
और लोग फिर ये हैं कहते
अरे, मेरी स्त्री कितनी सुंदर है
और मनोहर मुस्कान इसकी ये ।
यह शरीर, त्वचा, , रुधिर,
मज्जा और हड्डियों का ढेर है
और मलमूत्र और पीव से
पूरा का पूरा भरा हुआ है ।
यदि मनुष्य इसमें रमता है
तो कीड़ों और उसमें अंतर ही क्या
इसलिए विवेकी पुरुषों को चाहिए कि
संग ना करे स्त्रीलंपट पुरुषों का ।
विषय और इंद्रियों के संयोग से ही
होता है विकार मन में
जो वस्तु देखी सुनी ना गई हो
विकार ना हो मन में उसके लिए ।
विषयों के साथ इंद्रियों का
नहीं जो होने देता
मन शांत हो जाता है
सर्वथा निश्चल होकर उसका ।
अतः वाणी, कान और मन आदि से
संग स्त्रियों और स्त्रीलंपट का
कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि
इंद्रियाँ और मन नहीं विश्वसनीय ।
भगवान कृष्ण कहते हैं उद्धव
जब पुरुरवा के मन में
इस प्रकार उद्ग़ार उठने लगे
उर्वशीलोक त्याग दिया उसने ।
ज्ञानोदय होने के कारण
माया मोह जाता रहा उसका
अपने हृदय में आत्मस्वरूप से
मेरा साक्षात्कार कर लिया ।
बुद्धिमान पुरुष को चाहिए
कि वो पुरुरवा की भाँति
कुसंग छोड़, सत्पुरुषों का संग करे
नष्ट हो फिर मन की आसक्ति ।
संत पुरुषों का लक्षण ये है कि
किसी वस्तु की अपेक्षा ना होती उन्हें
उनका चित्त मुझमें लगा रहता
शांति का समुंदर उनके हृदय में ।
सदा, सर्वदा, सर्वत्र सब में
भगवान का ही दर्शन करते वो
लेश भी नहीं होता अहंकार का
संभावना कहाँ फिर ममता की तो ।
सर्दी - गर्मी, सुख - दुख आदि
द्वन्दों में एकरस हैं रहते
वैदिक, मानसिक, शारीरिक पदार्थ
किसी का भी परिग्रह नहीं रखते ।
उनके सौभाग्य की महिमा कौन कहे
लीला कथाएँ मेरी उनके पास सर्वदा
परम् हितकारी हैं होती
मनुष्यों के लिए मेरी कथा ।
जो उसका सेवन करते हैं
पाप ताप उनके धुल जाते
श्रद्धा से श्रवण करे जो उनको
वो मेरे परमधाम को पाते ।
भक्ति मेरी प्राप्त हो उन्हें
विशुद्ध आत्मा स्वरूप है मेरा
साक्षात परब्रह्म हूँ मैं और
भक्ति मिले जिसे वो संत हो गया ।
अब और कुछ मिलना शेष ना हो उसे
जिसने शरण ग्रहण की उन संत पुरुषों भी
संसारमय कर्मजड़ता आदि
सर्वथा निवृत हों उसकी ।
ब्रह्मवेता या शांत संत ही
एकमात्र आश्रय हैं उनके
जो इस संसार सागर में
डूब और उतरा हैं रहे ।
अन्न से जैसे प्राणियों की रक्षा हो
दीन दुखियों का परम् रक्षक मैं जैसे
धर्म ही एकमात्र पूँजी है
मनुष्यों के लिए परलोक में जैसे ।
जो संसार से भयभीत हैं
परम् आश्रय संतजन उनके लिए
संत पुरुष अंतरदृष्टि देते
भगवान को देखने के लिए ।
संत अनुग्रहशील देवता हैं
हितेषी, सुहृदय संत आपके
अपने प्रियतम आत्मा संत हैं
विद्यमान मैं ही संत रूप में ।
आत्मसाक्षात्कार होते ही
पुरुरवा की मिट गई सारी आसक्तियाँ
आत्माराम हो स्वच्छंद रूप में
पृथ्वी पर विचरण करने लगा ।