Ajay Singla

Classics

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श्रीमद्भागवत -२९२ः भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान की पूजा विधि का वर्णन

श्रीमद्भागवत -२९२ः भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान की पूजा विधि का वर्णन

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राजा निमि ने पूछा, योगेश्वरो

भगवान के परम भक्त आप तो

कृपाकर यह बतलाइए कि

जिनकी कामनाएँ शान्त ना हुई हों ।


लालसा मिटी ना हो भोगों की

इंद्रियाँ जिनके वश में नहीं

और भगवान का भजन भी ना करें

ऐसे लोगों की क्या गति होगी ।


अब आठवें योगेश्वर चमस जी ने कहा

“ राजन, विराट पुरुष के मुख से

सत्प्रधान ब्राह्मण हुए और

सत्यरज प्रधान क्षत्रिय भुजाओं से ।


रजतम प्रधान वैश्य जाँघों से

चरणों से तमप्रधान शुद्र हुए

जाँघों से गृहस्थआश्रम, हृदय से ब्रह्मचर्य

वानप्रस्थ हुआ वक्षस्थल से ।


सन्यासआश्रम प्रकट हुआ मस्तक से

इन चारों वर्णों आश्रमों के

जन्मदाता स्वयं भगवान ही

इसलिए मनुष्य को चाहिए ।


कि वो भगवान का भजन करे

और जो प्रभु का भजन नही करता

मनुष्य योनि से च्युत हो जाता वो

अधमपतन हो जाता उसका ।


आप जैसे भगवदभक्तों की

दया का पात्र है वो

कथा, कीर्तन की सुविधा देकर

आप लोग उनका उद्धार करो ।


वेदों का असली तात्पर्य ना जानकर

अर्थवाद से मोहित हो जाते

मूर्ख होने पर भी वो

अपने को पंडित समझते ।


रजोगुण की अधिकता के कारण

घोर होते उनके संकल्प बड़े

कामनाओं की सीमा नही रहती

हरि भक्तों की हंसी उलास करें ।


कभी कभी यज्ञ भी करते वो

अन्नदान, दक्षिणा नहीं देते

स्वाद के लिए और भूख मिटाने के लिए

पशुओं को। करते वे ।


मैथुन और मध की और प्राणी की

स्वाभाविक प्रकृति होती संसार में

विवाह, यज्ञ, सोत्रामणि यज्ञों के द्वारा

सेवन कर सकते कुछ स्तिथियों में ।


परंतु उच्छरंखल प्रवृति का नियंत्रण 

मर्यादा धर्म में सदा करना चाहिए

धर्मपत्नी के साथ सेवन भी

नही है विषय भोगों के लिए ।


धार्मिक परम्परा की रक्षा के लिए

संतान उत्पन्न करने के लिए ये

अर्थवाद में पड़े विषयी हैं जो 

वास्तव में दुष्ट हैं वे ।


यह शरीर तो मृतक शरीर है

सम्बन्ध टूटे मृत्यु के साथ ही

मूर्ख ही द्वेष रखते हैं

आत्मा से जो है इसमें रहती ।


उसका अधपतन निश्चित है

आत्मा भगवान से जो द्वेष करे।

जिनको आत्मज्ञान नही प्राप्त हुआ

शान्ति नही मिलती है उन्हें ।


अर्थ, क़र्म, काम में फँसे रहते हैं

पूरे पूरे मूढ़ भी नही जो

चित शान्त नही रहता उनका

इधर के ना उधर के रहते वो ।


अज्ञान को ही ज्ञान मानते हैं

कर्मों की परम्परा शान्त ना हो इनकी

इनके मनोरथों पर पानी फेरते

काल भगवान सदा सर्वदा ही “ ।


राजा निमि ने पूछा, योगेश्वरो

कृपा करके यह बतलाइए

कि भगवान किस समय, किस रंग का

कौन सा आकार, स्वीकार हैं करते ।


अब नोवें योगेश्वर करमाजन जी ने कहा

राजन, जो चार युग ये होते

सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि

और इन युगों में भगवान के ।


अनेकों रंग, नाम, आकृतियाँ होतीं

पूजा होती विभिन्न विधियों से

भगवान के श्री विग्रह का रंग

श्वेत होता है सतयुग में ।


चार भुजाएँ, सिर पर जटा होती

वल्कल का ही वस्त्र पहनते

काले मृग का चर्म, यज्ञोपवीत

रुद्राक्ष, दण्ड, कमंडलु धारण करें ।


शान्त, वैर रहित मनुष्य सतयुग के

सबके हितेषी, समदर्शी होते

इंद्रियों को वश में रखते वे

तपस्या द्वारा आराधना करते ।


श्री विग्रह का रंग लाल होता है

त्रेता युग में भगवान के

चार भुजाएँ होतीं हैं उनकी

तीन मेखला धारण करें कटिभाग में ।


यज्ञ के रूप में रहकर वो

यज्ञ पात्रों को धारण करते

धर्म में निष्ठा रखते बड़ी

होते मनुष्य जो इस युग में ।


ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद की

वेदत्रयी के द्वारा लोग वे

श्रेष्ठ भगवान श्री हरि की

आराधना हैं करते रहते ।


अधिकांश लोग त्रेता युग के

विष्णु, यज्ञ, सर्वदेव,जयंत आदि का

वर्णन वो करते हैं रहते

उनके गुण और लीला का ।


श्री विग्रह का रंग सांवला होता है

राजन, भगवान का द्वापर युग में

पीताम्बर, शंख, चक्र, गदा आदि

लक्षणों से पहचाने जाते वे ।


वक्षस्थल पर श्री वत्स का चिन्ह

मृगशाला, कोसतुभमनी पहचान होती उनकी

वेदिक और तांत्रिक विधि से

मनुष्य आराधना करते उनकी ।


वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युमण, अनिरुद्ध

रूप में आराधना मनुष्य हैं करते

कृष्णवर्ण रंग होता है

विग्रह का कलियुग में भगवान के ।


हृदय आदि अंग, कोसतुभ आदि उपांग

सुदर्शन आदि अस्त्र होते उनके

सुनंद आदि पार्षदों से

इस युग में संयुक्त रहते वे ।


श्रेष्ठ यज्ञों के द्वारा ही 

मनुष्य आराधना करते उनकी

नाम, गुण, लीला आदि और

कीर्तन की प्रधानता रहती ।


राजन, इसमें संदेह नही कि

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सभी

इन पुरुषार्थों के एकमात्र

स्वामी हैं बस श्री हरि ही ।


कलियुग में केवल संकीर्तन से ही

सारे स्वार्थ, परमार्थ बन जाते

इस युग का गुण जानने वाले

कलियुग की बड़ी प्रशंसा करते ।


भगवान की लीला, गुण के संकीर्तन से

भटकना मिट जाता संसार में

परम शांति का अनुभव होता

ऐसा गुण कलियुग का कहते ।


सतयुग, त्रेता और द्वापर की

प्रजा चाहती जन्में कलियुग में

क्योंकि भगवान के ही आश्रित

भक्त बहुत उत्पन्न हों इसमें ।


कलियुग में द्रविड़ देश में

बहें कावेरी, महानदी आदि नदियाँ

जो जल पीते उन नदियों का

अंतकरण शुद्ध हो जाता उनका ।


भगवान के चरणकमलों का भजन करें

सब छोड़छाड कर मनुष्य जो

पापकर्म होते ही नहीं उनसे

और कभी हो जाएँ भी तो ।


परपुरुष भगवान हरि उनके

हृदय में बैठ हैं जाते

सब धो बहा देते हैं वो

हृदय को उनके शुद्ध कर देते ।


नारद जी कहें” वासुदेव जी

योगेश्वरों से राजा निमि ने

भागवत धर्म का वर्णन सुना तो

बहुत ही आनंदित हुए वे ।


नवयोगेश्वरों की पूजा की उन्होंने

और इस सब के बाद में

वो नौ योगेश्वर सारे

वहाँ से अंतरधान हो गए ।


विदेहराज निमि ने उनसे

सुने हुए भागवत धर्मों से

सीख ले, अनुसरण किया उनका

परम गति को प्राप्त हुए वे ।


तुम भी जो इन भागवत धर्मों का

आचरण करोगे तो अंत में

सभी आसक्तियों से छूटकर

परमपद प्राप्त कर लोगे ।


वासुदेव जी, तुम्हारे और देवकी के

यश से जगत भरपूर हो रहा

क्योंकि तुम्हारे पुत्र के रूप में

अवतार हुआ भगवान कृष्ण का ।


तुम लोगों ने वात्सल्य सनेह करके

शुद्ध कर लिया है हृदय अपना

परम पवित्र हो गए हो

पाकर तुम कृष्ण का ।


शिशुपाल, पौंडरकि शाल्व आदि

राजाओं ने तो वैरभाव से

श्री कृष्ण को स्मरण किया था

फिर भी कृष्णकार हो गए वे ।


सारूप्य मुक्ति के अधिकारी हुए वे

फिर जो प्रेमभाव और अनुराग से

श्री कृष्ण का चिन्तन करते

कृष्ण प्राप्ति कैसे ना हो उन्हें ।


वासुदेव जी, तुम श्री कृष्ण को

अपना पुत्र ही मत समझो

सर्वात्मा, सर्वेश्वर वे

कारणतीत और अविनाशी वो तो ।


अभी लीला के लिए ही

मनुष्य रूप में प्रकट हुए वो

ऐश्वर्या छिपा रखा अपना और

पृथ्वी के राजवेशधारी असुरों को ।


मारने को और नाश करने को उनका

और रक्षा करने को संतों की

तथा जीवों को परमगति और

मुक्ति देने के लिए ही ।


वो अवतीर्ण हुए धरती पर

और ये सब सुनकर वासुदेव देवकी को

बड़ा ही विस्मय हुआ और

तत्क्षण छोड़ा माया और मोह को ।


 


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