श्रीमद्भागवत ः२९६ - अवधूतोपाख्यान - कुरर से लेकर भृंगी तक सात गुरुओं की कथा
श्रीमद्भागवत ः२९६ - अवधूतोपाख्यान - कुरर से लेकर भृंगी तक सात गुरुओं की कथा
अवधूत दत्तात्रेय जी ने कहा
वस्तुएँ जो मनुष्य को प्रिय लगे
उन सब को इकट्ठा करना ही
दुःख का कारण है उसके ।
जो बुद्धिमान पुरुष हैं
शरीर की तो बात ही क्या
अपने मन से भी किसी
चीज़ का संग्रह नही करता ।
अत्यंत सूखस्वरूप प्रसन्नता की
प्राप्ति होती है उसे ही
इस विषय में सुनाता हूँ तुम्हें
कथा मैं कुरर पक्षी की ।
मास का टुकड़ा अपनी चोंच में
लिए हुए एक कुरर पक्षी था
उससे बलवान जो पक्षी थे
जिनके पास मांस नही था ।
उससे छीनने के लिए ही
उसे घेर कर चोंच मारते
कुरर पक्षी को तभी सुख मिला
जब टुकड़े को छोड़ दिया उसने ।
मान अपमान का ध्यान नही मुझे
घर और परिवार वालों की जो होती
चिंता वो मुझे नही है
रमता हूँ अपनी आत्मा में ही ।
उसी के साथ क्रीड़ा करता हूँ
यह शिक्षा एक बालक से ली
अब उसी के समान मैं
मोज करता रहता सदा ही ।
दो ही प्रकार के व्यक्ति जगत में
परमानंद में मगन हैं रहते
एक तो भोला नन्हा सा बालक
दूसरा गुणातीत जो हो संसार से ।
कुमारी कन्या को वरण करने को
एक बार बहुत से लोग आए हुए
उसी दिन उसके घर के लोग सभी
कहीं बाहर गए हुए थे ।
आतिथ्य स्वीकार किया स्वयं ही उसने
भोजन बनाने को धान कूटती
उसी समय उसकी कलाई में
शंख की चूड़ियाँ बजने लगीं ।
इस शब्द को निन्दित समझकर
कन्या को बड़ी लज्जा मालूम हुई
क्योंकि उसका स्वयं धान कूटना
दरिद्रता दर्शाता था उसकी ।
एक एक करके उसने फिर
चूड़ियाँ सारी तोड़ डालीं अपनी
और दोनों हाथों में केवल
दो ही चूड़ियाँ रहने दीं ।
परंतु अब भी जब धान कूट रही
बजने लगीं वो दो चूड़ियाँ भी
तब उनमें से एक एक और
चूड़ी उसने तोड़ डालीं थी ।
आवाज़ सारी अब ख़त्म हो गयी
और उसी समय लोगों का
आचार विचार परखने के लिए मैं
घूमता घामता हुआ वहाँ पहुँचा ।
मैंने इससे शिक्षा ये ग्रहण की
कि लोग साथ साथ रहते हैं जब
वो लड़ते झगड़ते ही हैं
कष्ट तो उनको होना ही है तब ।
बातचीत तो होनी ही है
जब दो लोग भी साथ रहें
इसलिए कन्या की चूड़ी समान ही
अकेले ही विचरना चाहिए ।
बान बनाने वाले से, राजन
मैंने ये सीखा है कि
आसन और श्वास को जीतकर
वश में कर लो मन को अपने ।
वैराग्य और अभ्यास के द्वारा ऐसे करो
और फिर बड़ी सावधानी से
उसे एक लक्ष्य में लगा दो
स्थिर करो उसे तब परमात्मा में ।
कर्मवासनाओं की धूल को
धो बहाता ये धीरे धीरे
रजोगुण, तमोगुण वृतियों का त्यागकर
सत्वगुण की बुद्धि से ।
मन वैसे ही शांत हो जाता
बिना ईंधन के जैसे अग्नि
बान बनाने वाला, देखा एक मैंने
बान बनाने में इतना तन्मय कि ।
राजा की सवारी निकली पास से
परंतु उसे पता ही ना चला
और राजन मैंने सांप से
ग्रहण की ये ही शिक्षा ।
कि सांप की भाँति अकेला ही
विचरण करना चाहिए संसार में
मंडली ना उसे बांधनी चाहिए
कम बोले और ्रमाद ना करे ।
इस अनित्य शरीर के लिए घर
बनाना व्यर्थ, जड़ ये दुःख की
बड़े आराम से समय काटता
सांप दूसरे के घर में घुसकर ही ।
शिक्षा मैंने एक मकड़ी से ली कि
जैसे मकड़ी अपने हृदय से
मुँह के द्वारा जाल फैलाती
विहार करती फिर निगल जाती उसे ।
वैसे ही परमेश्वर जगत की
उत्पति करते हैं अपने से
विहार करते जीवरूप रूप से वहाँ और
लीन कर ले
ं उसे अपने में ।
भृंगी कीड़े से शिक्षा ये ग्रहण की
कि यदि प्राणी स्नेह से
द्वेष से अथवा भय से ही
जानबूझकर एकाग्र रूप से ।
अपना मन किसी में लगा दे
तो उसे वस्तु का उसी
स्वरूप प्राप्त हो जाता है
जैसे कीड़ा बन जाता भृंगी ।
राजन, भृंगी एक कीड़े को
बंद करती रहने की जगह पर अपने
और वह कीड़ा भय से
उसी का चिंतन करते करते
पहले शरीर का त्याग किए बिना
उसी शरीर में तद्रूप हो जाता
परमात्मा का चिंतन ही करना चाहिए
इसलिये मनुष्य को, ना किसी और का ।
अब मैं बतलाता हूँ तमहे
सीखा जो मैंने अपने शरीर से
विवेक, वैराग्य की शिक्षा देता
मेरा गुरु, मेरा शरीर ये ।
मरना जीना लगा रहता इसका और
पकड़े रखता जो इस शरीर को
उसको फल यही है मिलता कि
दुःख पर दुःख भोगता है वो ।
तत्वविचार करने में सहायता
मिलती है यद्यपि शरीर से
तथापि मैं नही समझता
अपना किसी भी समय इसे ।
सर्वदा यही निश्चय करता हूँ कि
एक दिन कोई पशु खा जाएगा इसे
असंग होकर ही विचरता हूँ
इसलिए मैं इस शरीर से ।
अनेकों कामनाएँ, कर्म करता है
जीव शरीर का प्रिय करने के लिए
पालन पोषण में लगा रहता है
स्त्री, पुत्र, भाई बंधुओं के ।
कठिनाई से धन संचय करे
आयु होने पर स्वयं वो नष्ट हो
दुःख की व्यवस्था कर जाता है
दूसरे शरीर के लिए बीज बोकर वो ।
जीभ स्वाद की और खींचती
प्यास खींचे जल की और को
स्त्री सम्भोग की और जननेंद्रियां
कोमल स्पर्श अच्छा लगे त्वचा को ।
पेट भोजन की और खींचता
कान को मधुर शब्द अच्छा लगे
सुन्दर गंध की और नाक और
नेत्र सुंदरता की और चलें ।
कर्मेंद्रियाँ और ज्ञानेंद्रियाँ ऐसे
दोनों ही हमें सताती रहतीं
जीव इस चक्र में फँसा रहे
उसे शांति मिलती ना कभी ।
अपनी शक्ति माया से प्रभु ने
वृक्ष, पक्षी आदि योनियाँ रचीं
परंतु उनको संतोष तब हुआ
जब मनुष्य की सृष्टि की ।
यह ऐसी बुद्धि से युक्त है
ब्रह्म का साक्षातकार कर सकती जो
इसकी रचना करने से
आनंद हुआ था ब्रह्मा को ।
यद्यपि मनुष्य शरीर अनित्य है
मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती
परंतु परम पुरुषार्थ की
हो सकती इससे प्राप्ति ।
इसलिए अनेक जन्मों के बाद यह
मनुष्य शरीर मिलता, अत्यंत दूर्लभ जो
मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए
मृत्यु से पहले मनुष्य को ।
मुख्य उदेशय मोक्ष जीवन का
सभी योनियों में विषय भोग मिलें
इसलिए उनके संग्रह में पड़कर
अमूल्य जीवन नही खोना चाहिए ।
राजन, सोच विचारकर यही
वैराग्य हो गया मुझे जगत से
जगमगाती रहती है सदा अब
ज्ञान की ज्योति मेरे हृदय में ।
ना तो कहीं आसक्ति मेरी
और ना कोई अहंकार है
और सदा विचरा करता हूँ
सवछंद रूप से पृथ्वी पर मैं ।
राजन, गुरु अकेले से ही
यथेष्ट और सहृदय बोध नही होता
उसके लिए बुद्धि से भी
बहुत कुछ समझना पड़ता ।
एक ही अद्वित्य ब्रह्म का
अनेकों प्रकार से गान किया ऋषियों ने
स्वयं विचारकर निर्णय ना करो तो
ब्रह्म के स्वरूप को कैसे जानोगे ।
भगवान कृष्ण ने कहा, उद्धव
ऐसा उपदेश जब दिया यदु को
दत्तात्रेय की पूजा की उन्होंने
दत्तात्रेय तब चले गए वन को ।
हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज राजा यदु
दत्तात्रेय जी का उपदेश सुनकर वे
तत्काल ही समदर्शी हो गए
आसक्तियों से छुटकारा पा गए ।