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Ajay Singla

Classics

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श्रीमद्भागवत -३१५: परमार्थ निरूपण

श्रीमद्भागवत -३१५: परमार्थ निरूपण

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श्रीमद्भागवत -३१५: परमार्थ निरूपण


भगवान श्री कृष्ण कहते, उद्धव जी

दो प्रकार का जगत जान पड़े

यद्यपि व्यवहार में पुरुष और प्रकृति -

द्रष्टा और दृश्य के भेद से ।


तथापि परमार्थ - दृष्टि से देखने पर

यह सब एक अधिष्ठान स्वरूप ही

इसलिए स्वभाव अनुसार कर्मों की किसी के

ना स्तुति करनी चाहिए ना निंदा ही ।


शांत, घोर और मूढ़ स्वभाव तथा कर्मों से

सर्वदा अद्वैत दृष्टि रखनी चाहिए

दूसरों के स्वभाव और कर्मों की

जो पुरुष प्रशंसा या निंदा करते ।


यथार्थ, परमार्थ साधन से वो अपने

शीघ्र ही च्युत हो जाते

राजस अहंकार के कार्य है

उद्धव जी सभी इंद्रियों में ।


जब वो निद्रित हो जाती है

चेतनाशून्य हो जाए अभिमानी जीव जो

अर्थात् बाहरी शरीर की

समृति नहीं रहती उसको ।


उस समय यदि मन बचा रहा तो

वह भटकने लगता सपनों में

वह भी लीन हो जाये तो

लीन हो जाए वो सुषुप्ति में ।


अपने आत्मस्वरूप को भुलाकर जीव जब

दर्शन करे नाना वासनाओं के

तब वह स्वप्न के समान

फँस जाता झूठे दृश्यों में ।


अथवा मृत्यु के समान अज्ञान में

लीन हो जाता है वो

बुरी या भली वस्तु का प्रश्न ही नहीं

जब द्वैत नाम की कोई वस्तु ही नहीं तो ।


विश्व की सभी वस्तुएँ

वाणी से कही जा सकतीं

अथवा मन से सोची जा सकें

इसलिए दृश्य एवं अनित्य होतीं सभी ।


और इसीलिए मिथ्यातत्व तो

स्पष्ट ही है उन सबका

परछाई, प्रतिध्वनि आदि आभास

हैं तो सर्वदा मिथ्या ।


परंतु उनके द्वारा हृदय में

भय कंपन का संचार हो जाता

वैसे ही देहादि सभी वस्तुएँ

हैं वो सब सर्वथा मिथ्या ।


परंतु जब तक ज्ञान के द्वारा

उनकी असत्यता का बोध होता नहीं

अत्यांत्रिक निवृत्ति ना हो जाये तब तक

अज्ञानियों को भयभीत करतीं हैं ये भी ।


जो कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तु है

वह आत्मा है, सर्वशक्तिमान वही

निमित करण, उपादान कारण वो उसका

जो विश्व सृष्टि प्रतीत हो रही ।


अर्थात् वही विश्व बनता है

ओर बनाता भी है वही

वही रक्षक भी है इसका

और वही है रक्षित भी ।


भगवान ही संहार करते इसका और

जिसका संहार हो वह भी वे ही

व्यवहार दृष्टि से देखने पर

आत्मा विश्व से भिन्न है लगती ।


परंतु आत्मदृष्टि से उसके अतिरिक्त

और कुछ वस्तु है ही नहीं

उसके अतिरिक्त जो प्रतीत हो रहा

निर्वाचन ना हो उसका किसी प्रकार भी ।


और अनिर्वचनीय तो केवल

है तो बस आत्मस्वरूप ही

सृष्टि, स्थिति, संहार तीन प्रकार की

प्रतीतियाँ इसमें सर्वथा निर्मूल ही ।


यह सत्व, रज और तम के कारण

प्रतीत होने वाली त्रिविधिता

उसका कारण तो माया ही

और जो जानते रहस्य इनका ।


वह ना तो प्रशंसा करें किसी की

और ना किसी की निंदा करें

विचरता रहता वो जगत में

सूर्य के समान स्वभाव  से ।


प्रत्यक्ष, अनुमान, शास्त्र आत्मानुभूति आदि

सभी प्रमाणों से सिद्ध है ये

कि उत्पत्ति - विनाशशील होने के कारण

अनित्य एवं असत्य जगत ये ।


यह बात जानकर जगत में

असंगभाव से विचरना चाहिए

जब भगवान ने ऐसा कहा तो

प्रश्न पूछा ये उद्धव जी ने ।


कि आत्मा है द्रष्टा और देह दृश्य है

देह जड़ है, स्वयंप्रकाश आत्मा

ऐसी स्थिति में जन्म - मृत्युरूपी संसार

ना शरीर का हो सकता ना आत्मा का ।


परंतु इसका होना भी उपलब्ध हो

तो यह होता है किसे

आत्मा तो अविनाशी और रहित है

प्राकृत और अप्राकृत गुणों से ।


शुद्ध स्वयंप्रकाश है और रहित है

सभी प्रकार के आवरणों से

तथा शरीर विनाशी, सगुण, अशुद्ध

प्रकाश्य और आवृत है ये ।


आत्मा अग्नि समान प्रकाशमान है

काठ की तरह अचेतन शरीर ये

फिर यह जन्म मृत्युरूप

संसार इनमें से है किसे ।


भगवान श्री कृष्ण ने कहा वस्तुतः

शरीर का अस्तित्व नहीं तथापि

जब तक देह, इंद्रियाँ और प्राणी के

साथ आत्मा का संबंध- भ्रान्ति ।


तब तक अविवेकी पुरुषों को

यह सत्य या सफ़ूरित है होता

जैसे विपत्तियाँ आतीं स्वप्न में

परंतु वास्तविकता में नहीं होता ।


फिर भी स्वप्न टूटने तक

अस्तित्व नहीं मिटता इनका

वैसे ही संसार के ना होने पर भी

जो उसके विषयों का चिंतन करता ।


जन्म मृत्युरूप संसार की तब तक

निवृत्ति नहीं होती उनके

स्वप्न से जग जाए कोई तो

मोह, विपत्तिया आदि तब नहीं रहते ।


शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ आदि

सपृहा और जन्म मृत्यु का

शिकार बनता है अहंकार ही

आत्मा से कोई संबंध ना उसका ।


देह, इंद्रियाँ, प्राण और मन में

स्थित आत्मा ही जब उनका

अभिमान कर बैठता है और

उसे अपना स्वरूप मान लेता ।


तब उसका नाम जीव हो जाता

और लिंगशरीर तो गुण, कर्मों का बना

उस सूक्ष्मा अति सूक्ष्म आत्मा की मूर्ति

उसे ही सूत्रात्मा कहा जाता ।


कभी इसे महत्त्त्व भी कहते

और नाम भी इसके बहुत से

जन्म मृत्युमय संसार में भटकता रहता

वही अधीन हो कालरूप परमेश्वर के ।


वास्तव में मन, वाणी, प्राण, शरीर

कार्य हैं अहंकार के ही

हैं तो निर्मूल परंतु प्रतीति होती

देवता, मनुष्य आदि रूपों में इसी की ।


मननशील पुरुष उपासना आदि से

ज्ञान के द्वारा काट डालता

देहादिअभिमानी अहंकार को और

पृथ्वी में निद्वन्द होकर विचरता ।


फिर उसे किसी प्रकार की

नहीं रहती आशा, तृष्णा

और विवेक होने पर ही

द्वेत का अस

्तित्व मिट जाता ।


इसका साधन है कि शुद्ध करे

हृदय को तपस्या के द्वारा

फिर बेदादि शास्त्रों का श्रवण करे

महापुरुषों के उपदेश प्रमाण है इसका ।


इस सबका सार यही निकलता

कि इस संसार में जो था आदि से

तथा अंत में जो रहेगा

कोई वस्तु अतिरिक्त ना उसके ।


उद्धव जी, आदि अंत और

मध्य मैं ही हूँ जगत का

जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति

होतीं हैं मन की तीन अवस्था ।


सत्व, रज, तम तीन गुण ये

कारण इन अवस्थाओं के

अध्यात्म, अधिभूत और अधिदेव

तीन भेद हैं इस जगत के ।


अध्यात्म अर्थात् इंद्रियाँ

अधिभूत अर्थात् पृथिव्यापी है

अधिदेव अर्थात् कर्ता और

ये सभी त्रिविधताएँ हैं ।


और एक तुरीय तत्व है

जो परे है इन तीनों से

और ब्रह्मतत्व ही सत्य है

अनुगत चौथा तत्व जो इनमें ।


जो उत्पत्ति से पहले नहीं था और

प्रलय के बाद भी नहीं रहेगा

बीच में भी वह है नहीं

ऐसा इसे चाहिए समझना ।


यह निश्चित सत्य है कि जो

पदार्थ जिससे बनता है या

जिसके द्वारा प्रकाशित होता है

वही वास्तविक स्वरूप है उसका ।


यह जो विकारमयी राजस सृष्टि है

ना होने पर भी दीख रही ये

स्वयंप्रकाश ब्रह्म ही है यह

इंद्रिया, विषय,मन, पंचभूतादि इसलिए ।


जितने चित्र विचित्र नाम रूप हैं

ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा उनके रूप में

श्रवण, मनन, निदिध्यासन और स्वानुभूति

ये साधन हैं ब्रह्मविचार के ।


ज्ञानी गुरुदेव सहायक हैं उनमें

और विचार कर इनके द्वारा

निषेध कर देना चाहिए

देहादि अनात्म पदार्थों का ।


इस प्रकार निषेध के द्वारा

छिन्न भिन्न करे आतामनिष्यक संदेहों को

आत्मा में मगन हो जाए

सब प्रकार के विषयों से रहित हो ।


निषेध करने की प्रक्रिया ये है

कि विकार होने के कारण पृथ्वी का

शरीर ये आत्मा नहीं है

इंद्रियाँ, प्राण, मन भी नहीं आत्मा ।


इंद्रियों के अधिष्ठाता देवता और

वायु, जल अग्नि भी नहीं आत्मा

क्योंकि इनका धारण पोषण

शरीर के समान अन्न से होता ।


बुद्धि, चित, अहंकार, आकाश, पृथ्वी

शब्दादि विषय और प्रकृति भी

आत्मा नहीं हैं क्योंकि

दृश्य एवं जड़ हैं ये सभी ।


जिसे ज्ञान हो जाता है

भली भाँति मेरे स्वरूप का

वृत्तियाँ, इंद्रियाँ यदि समाहित रहें तो भी

उसे उनसे लाभ ही क्या ।


और यदि वे विक्षिप्त रहती हैं

तो हानि फिर क्या है उनसे

क्योंकि आत्मकरन और ब्रह्म करण गुणमय हैं

कोई संबंध ना इनका आत्मा से ।


वायु आकाश को सुखा ना सके जैसे

आग जला नहीं सकती उसे

जल भिगो नहीं सकता है

धूल मटमैला ना कर सके ।


ऋतुओं के गुण गर्मी, सर्दी आदि

उसे प्रभावित ना कर सकें

क्योंकि सब आने जाने वाले ये

क्षणिक भाव हैं सब के सब ये ।


और एकरस अधिष्ठान है

आकाश तो इन सभी का

वैसे ही गुणों की वृत्तियाँ और कर्म

ना कर पाएँ आत्मा का ।


इनके द्वारा तो केवल वही

भटकता है इस संसार में

जो उनमें अहंकार कर बैठे

इसलिए त्याग देना चाहिए इन्हें ।


वासनाओं और कर्मों के संस्कार

जिसके अभी तक मिटे नहीं

जो स्त्री - पुत्रादि में आसक्त है

यह सब कर दे उसे योग भ्रष्ट भी ।


यदि इन विघ्नों से कदाचित्

अधूरा योगी मार्ग च्युत हो जाए

तो भी पूर्वअभ्यास के कारण

योग साधना में लग जाए ।


जीव जब संस्कार आदि से प्रेरित हो

जन्म से मृत्यु प्रयन्त कर्मों में लगता

तो हर्ष विषाद जैसे कई

विकारों को वो प्राप्त करता ।


परंतु साक्षात्कार कर ले जो तत्व का

प्रकृति में स्थित होने पर भी

हर्ष विषाद से युक्त ना हो

क्योंकि ये तृष्णाएँ नष्ट हो चुकीं उसकी ।


जो अपने स्वरूप में स्थित हो गया

उसे इस बात का भी पता नहीं

कि शरीर खड़ा है या बैठा

चल रहा या सो रहा अभी ।


कोई स्वाभाविक कर्म कर रहा

या भोजन कर रहा वो

क्योंकि आत्मस्वरूप में स्थित है

इस समय उसकी बुद्धि तो ।


अपने से भिन्न पदार्थों को

ज्ञानी पुरुष सत्य ना मानें

त्याग करे अज्ञानी आत्मा का

ज्ञानी लोग ग्रहण करें उसे ।


जैसे सूर्य उदय होने पर

मनुष्य के नेत्रों के सामने

हटा देता अंधकार का पर्दा

किसी नयी वस्तु का निर्माण नहीं करते ।


वैसे ही ज्ञान मेरे स्वरूप का

अज्ञान का आवरण नष्ट कर देता

वह इंदरूप से किसी

वस्तु का अनुभव नहीं करता ।


आत्मा नित्य अपरोक्ष है

उसकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती

वह तो स्वयंप्रकाश है उसमें

अज्ञान आदि का भी विकार नहीं ।


वह जन्म रहित है इसलिए

किसी वृत्ति में आरूढ़ नहीं होता

ज्ञान आदि के द्वारा उसका

संस्कार भी नहीं किया जा सकता ।


देश, काल, वस्तु कृत परिच्छेद

ना होने के कारण आत्मा में

अस्तित्व, बुद्धि, परिवर्तन , ह्रास, विनाश

उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते ।


योगसाधना पूर्ण होने से पहले यदि

साधक रोगादि उपद्रवों से पीड़ित हो

तो आश्रय लेना चाहिए

इन उपायों का तब उसको ।


गर्मी, ठंड आदि सताये तो

धारणा करे चन्द्रमा, सूर्य की

वात आदि रोगों के लिए

वायुधारण युक्त आसनों की ।


ग्रह सर्पादि विघ्नों को नष्ट करे

तपस्या, मंत्र, औषधि के द्वारा

काम क्रोध आदि विघ्नों को

मेरे चिंतन और नाम के द्वारा ।


दम्भ, मद आदि विघ्नों को

महापुरुषों की सेवा से दूर करे

परंतु ये सब योग साधना

सिद्धियों के लिए नहीं करनी चाहिएँ ।


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