मैं कोई कविता नहीं
मैं कोई कविता नहीं


ज़िंदगी के समुन्दर ने तैरना तो खूब सिखाया
डूबना तुम्हारी आँखों ने सिखाया.!
पलकों की मजझधार पर बैठे बह जाती हूँ लहरों सी,
तुम्हारी साँसों से बहते उच्छ्वास की सुगंध में इत्र सी ढ़ल जाती हूँ.!
तुम्हारी गुनगुनाहट का सूर हूँ, तुम्हारी चाल की लय संग
ताल मिलाती तुम संग संगीत बन जाती हूँ.!
तुम्हारी हथेलियों को सहलाते मैं कृष्ण के सर को
सुशोभित करता मयूर पंख बन जाती हूँ,!
वो फूलदल हूँ जो प्रेमी अपने प्रेम का इज़हार करते
प्रेमिका पर बरसातें है,
वैसे ही तुम्हारे लबों पर इकरार बनकर ठहरी
हूँ.!
तुम्हारी सोच में खयाल बनकर खेलती हूँ,
तो कभी-कभी उदास आसमान की लोच सी हूँ
जो काली घटा के बिरह में बरसने को बेताब
रात की तुरपाई पर सोते रोता रहता है.!
मैं भी तो दो पल ठहरती हूँ तुम्हारी पुतलियों में बसी
एक छुअन के इंतज़ार में दरिया के तट सी प्यासी,
जो लहरों के इंतज़ार में सूखी रेत की फाँके उड़ाता रहता है.!
मैं कोई कविता नहीं
एक अल्हड़ सा ख़याल हूँ वो दूर खेतों की खुली हवाओं से
खेलती चंचल यौवना के मन के भीतर पनपता है
एक अन्जान मनचाहे लड़के के प्रति।