रात की बात
रात की बात
चुप है ये रात दरख्तों को
हिलाता क्यों है,
तू थके मांदे परिंदों को
उड़ाता क्यों है?
कल को भूल कर आगे
बढ़ गया हूं मैं,
तू सुइयां घड़ियों की
पीछे घुमाता क्यों है?
धूप में चलकर तपिश
सहन की हो तो पता चले,
छांव में बैठ कर
अंदाजा लगता क्यों है ?
मुस्कुराना तो आदत है
इन लबों की पगले,
इसका मतलब मेरे
सुख दुख से लगाता क्यों है?
वीरान थी वो नहर जिस
से टकराया था मैं,
छोड़ आया जिस दरिया को
उसकी प्यास जगाता क्यों है?
अब प्यार का ही तो रूप है
सब त्याग, तपस्या, पूजा,
इनमें फर्क करके
मुद्दा बनाता क्यों है ?