बीते काल की थकन
बीते काल की थकन
तू चल नये आगाज
मिटा अपने तन-मन की
थकन; कर कथन अपने मन
क्षुधा लिप्सा को कर अंतर्मन
रे पंछी! न परवाज कर छोड़ अपने नीड़-चमन।
इस सृष्टि का कहीं न अन्त
तू विश्राम कर आना – जाना
पंखों को ले अपने समेट
थकन तू अपनी ले मिटा
रे तरंग! न सहला चल तू गुदगुदाते अपने पन्थ।
दिखे सब में प्रीति नेह विश्वास
तटनी की भूल भुला दे
वो कौन एक है जो
छोड़े अपने शीलपन
रे पवन! न हहर चल तू मौन हो संग-संग।
जग द्रोह से है भरा
मोह तू छोड़ जरा
ज्ञान-विज्ञान के लिये लड़ा
क्यूँ जीवन – प्राण से भिड़ा
प्रचंड प्रज्वलित रहा
खुद में आनंद प्रसन्न रहा
रे अंतस्! न विलासी तू तापस अंग को सुसुप्त कर।
जीवन का सकल आसय
न ढो अब भ्रमित भाव से
निष्कर्ष तू निकाल अभी
मन को न तोल हार-जीत से
अनगन न कर
महा-वृन्त तू बन
रे स्वरूप! न बिगाड़ तू संवार निरता का कर सृजन।
