काशी की गंगा आरती और मैं
काशी की गंगा आरती और मैं
कर बद्ध विनती करती रही मैं निशदिन,
महादेव तुम बुलावा भेजो मुझको इक दिन,
हुई है कई बार निरस्त मेरी यात्रा,
मिलने की तुमसे पर खोई नहीं थी आशा,
विश्वास पर था भरोसा,
थी मन की अभिलाषा,
गंगा तट आरती में, सम्मुख तुम्हारे बैठूँ,
काशी में तुम्हारे और गंगा के संग बैठूँ,
ऐसी सुनी अनुनय विनय हमारी प्रभु ने,
हुई ऐसी अनुकंपा बरसों की इच्छा आज पूरी,
आ गया बुलावा दशाश्वमेध घाट से,
प्रथम पंक्ति का स्थान आरक्षित किया था प्रभु ने,
सम्मुख प्रभु के और गंगा संग के वो पल,
सुनकर आरती, ढोल नगाड़े और डमरू की ध्वनि को उस पल,
मंत्रों के जयकारे का वो नाद और आनंद के वो पल,
रोमांचित हो कर नतमस्तक जो मैं थी,
कई जन्मों के पुण्यों का फल जो आज पा रही थी,
स्पर्श दर्शन का भी अवसर भोलेनाथ ने दिया था,
दिव्य ऊर्जा का स्पर्श भी मुझे हुआ था,
कण कण में शिव तुम ही हो,आभास ये हुआ था,
आज भी भरोसा होता नहीं मुझको,
ऐसी कृपा को पाकर धन्य जो मैं हुई थी !
