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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Classics Inspirational

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Classics Inspirational

विडंबना

विडंबना

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वो स्वयं को लोकतंत्र का पुरोधा बताये बैठे हैं 

और दशकों से पार्टी पर कब्जा जमाये बैठे हैं 


कहते हैं कि सेक्युलरिज्म उनकी रग रग में है

खास समुदाय पर मेहरबानियां लुटाये बैठे हैं 


अभिव्यक्ति की आजादी का राग अलापने वाले

इस देश में वर्षों तक "आपात काल" लगाये बैठे हैं 


"संघवाद" की वकालत करते नहीं थकते हैं वो 

जो बात बात पर "राष्ट्रपति शासन" लगाये बैठे हैं 


गांधी का अनुयायी बताकर दिखते हैं अहिंसक 

सिखों का कत्लेआम कर खून में नहाए बैठे हैं 


सत्य और ईमानदारी के स्वयंभू ठेकेदार बने हुए हैं 

झूठ की नींव पे "मक्कारी" का मकां बनाये बैठे हैं 


सफेद कपडों के पीछे छुपे हैं न जाने कितने कारनामे

विडंबना तो देखो उनसे ही "भले की आस" लगाये बैठे हैं।


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