तुम क्या जानों
तुम क्या जानों
तुम क्या जानों जामुनी शाम के
शामियाने तले कागज़,
कलम, दवात से मिलकर गले,
तुम्हारी यादों में कितना रोई...
लिखने थे इश्क के अफ़साने,
चुम्बनों के चर्चे और मिलन के मायने,
कहाँ एक लफ्ज़ भी लिख पाई
कोरे पन्नों पर बस तुम्हारी तस्वीर उतारी..
जुदाई की ज्वाला में जलते पंक्तियों को
प्रीत के रंगों से कहो कैसे सजाती,
बिरहन के दर्द को महसूस करे
ऐसा कागज़ बना ही नहीं...
"कलम से चार बूँद कहो कैसे छलकाती"
अधरों पर प्यास पड़ी,
उर में है आस बड़ी मन की मुराद कहो
किसको सुनाऊँ भला,
शाम है उधार एक तुम पर जो
याद रहे आ जाओ एकबारगी..
मनुहार के नाद पर तुमको पुकारती,
तुम क्या जानों दर्द के दरख़्त से मिलकर गले,
तुम्हारी यादों में मैं कितना रोई...