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दिनेश कुशभुवनपुरी

Tragedy

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दिनेश कुशभुवनपुरी

Tragedy

गीतिका- प्रकृति

गीतिका- प्रकृति

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जगे जब प्यास धरती की बुझाता वृष्टि करके घन।

अगर हो वृष्टि में बाधा समझ लो कट रहे हैं वन॥


प्रकृति भी रूठ कर बैठी मनाए कौन उसको अब।

जहाँ में लग रहे सारे कमा लें ढेर सारा धन॥


इसे पा लें उसे पा लें नहीं है चैन मानव को।

जगत के प्राकृतिक संसाधनों का कर रहा दोहन॥


कहीं सर्दी कहीं गर्मी कहीं बरसात का मौसम।

मनुष्यों के कुकर्मों ने किया नित नित्य गठबंधन॥


दशाओं ने दिशाओं का बदलकर रख दिया है पथ।

हवाएं हो रहीं घातक प्रदूषण कर रहा नर्तन॥


हुआ है अनमना बादल गगन भी हो रहा बोझिल।

धरा निस्तेज दिखती है प्रकृति भी कर रही क्रंदन॥



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