धरती ऐसे जल रही
धरती ऐसे जल रही
धरती ऐसे जल रही,
जैसे जले मशाल।
धूल-धूल रस्ते हुए,
सूखे-सूखे ताल।।
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कहाँ गई धरती हरी,
कहाँ गए सब ताल।
कहाँ गए जंगल घने,
ऊँचे-ऊँचे साल।।
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जिस नदिया में नाव थी,
अब है धूल-गुबार।
रेत-रेत मंज़र सभी,
टूटी है पतवार।।
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सीखे जिसमें तैरना,
सूख गया वो ताल।
वहीं बनाकर कोठियाँ,
सेठ बनाते माल।।
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सूख गई अब के बरस,
अमराई अनमोल।
कोयल भी ज्यों भूलती,
मीठे-मीठे बोल।।
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बढ़ने दो काटो नहीं,
इतना रखकर याद।
ऊँचे वृक्षों से करते,
बादल खुद संवाद।।
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जंगल बिन मंगल नहीं,
लाख टके की बात।
जीवन में सबसे बड़ी,
हरियाली सौगात।।
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