वह तोड़ती लकड़ी
वह तोड़ती लकड़ी
वह तोड़ती लकड़ी
देखा मैंने...
रावतसर की सड़क पर
वह बाला
आती नित्य यहां
जिसका कर्मपथ वहां
बना गट्ठर,सर धर
आती बेच बाजार...
अथाह स्वेद बहाती है।
अपनी जठराग्नि बुझाती है।।
फटी कुर्ती, फटी काया
आह!जीवन की कैसी माया
साथ में उसके छोटी बच्ची एक
वाह! कोमल वह सच्ची नेक
बांधती चुन चुनकर तिनके
पाते स्पर्श धरा का निज
वहीं लेट सो जाती है।
बाला वह ले गोदी, गट्ठर
संध्या पहर....
अपनी जठराग्नि बुझाती है।।
कितनी ऐसी अभाग्य बाला
रखती कर्मपथ पर सुध कहां?
हे ' मुसाफिर '!
इस पुनीत अवनि पर
है कृष्णा कहां,
है बुद्ध कहां?
कहीं ईंट भट्ठे पर
कहीं कारखानों में
जातिवाद की ठोकर खाती है।
वह बाला बना गट्ठर
बेच बाजार....
अपनी जठराग्नि बुझाती है।।