गड़रिया
गड़रिया
जाती हुई गाड़ी को देख
सड़क के उस ओर
पत्थर से लगा कर पीठ
बैठा वह गड़रिया....
मौन था किन्तु
उसके आंखों से झलक रहे थे
अनगिनत सवाल....
ऊंचे शिखरों पर गिरती बर्फ
जहां से काटे गए पथ, वन
उसे विचलित करते
भेड़ें...जो झांक रही थी उसे
वह भेड़ों को
क्यों उजाड़ दिए मैदान?
देखता वह अमीर लड़के
देखता खुद को
क्या बदलेगा लिबास यह?
कभी होगा क्या
पहाड़ों में स्कूल?
क्या पहनेगा स्कूली ड्रेस वह?
भेड़ें दौड़ती...
दौड़ता वह, उसका मन
क्या बैठेगा कभी सुंदर स्वप्नों पर
होगा भीड़ में या
रहेगा निर्जन
घुमाता लाठी कभी
रखता कंधे
कम उम्र में बड़ी उम्र का तजुर्बा
ले चलता अपने साथ वह
छोड़ता अधूरा
उड़ाता धूल
हांकते हुए भेड़ों को
ठहरता पहाड़ों की जगह,
झाड़ता कपड़े
लेकर मुस्कान
मैं देखता उसे अपलक हो
जाता है देकर
कई सवाल
एक छोटा सा गड़रिया वह।।
