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Rohtash Verma ' मुसाफ़िर '

Abstract

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Rohtash Verma ' मुसाफ़िर '

Abstract

सफर पर

सफर पर

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महफिल में ग़म की तान सुनाने आया हूँ! 

ऐ सुनने वालो अपना दिल बहलाने आया हूँ!  


बरसों से भार लिए फिरता हूँ दासतां ए दर्द का, 

थका हारा मैं वो आज, भार लूटाने आया हूँ! 


इस महफिल में मुझ से, लाखों हैं शायद, 

नशे में चूर उन्हें दर्द, महसूस कराने आया हूँ! 


जिंदगी के मुकाम पे हसरते रूसवा हुई, 

काँटों के पथ पर यहाँ, आरजू जगाने आया हूँ! 


माना इस तट के पार सवेरा होगा अक्सर, 

मगर इस दरिया में खुद को बहाने आया हूँ! 


परिंदों ने छोड़ दिया इस दरख़्त पे रहना, 

मंजूर हो तो आपके शहर, घर बनाने आया हूँ! 


तुम्हें तालियों के सिवा कुछ करना आता नहीं, 

मैं अपने जीवन की रश्म, निभाने आया हूँ! 


चलो उठो अब इस तराने को सजदा करो, 

मेरी न सही तेरी आज, मशाल जलाने आया हूँ! 


खुशियों ने दामन छोड़ा, ' मुसाफ़िर ' चला है , 

मुसीबतों के सफर में, खुद को आजमाने आया हूँ!


      


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