आख़िर कब!
आख़िर कब!
दुःशासन-सा!
दुस्साहस लिए,
रौंदता लावण्य चीर।
भाव विजय का रख,
सोचता प्रखंड अधीर।
विचर रहा बन असुर,
दिन भी बना प्रवीर।
प्रचंड धूप-सा क्रूर,
विचल रहा शरीर।
रौद्र रूप पिशाच-सा,
अंग-अंग शाप-सा।
कुटिल मुस्कान का,
वह गरल ताप-सा।
धृष्टता की शाम का,
प्रतिवाद शून्य बना,
निष्पाप मन बोलता,
वो पाप जघन्य बना।
बर्बर क्रीड़ा की बलि पर,
बेटियाँ अब मर रहीं।
तमस की गुहा में क्यों,
स्त्रियाँ अब जल रहीं।
मान खोजता हर क्षण,
खड़ा वक़्त शूल-सा।
विचार में विचार अब,
पड़ा सख्त धूल-सा।
खो रहीं मुस्कान अब,
संस्कार जो दब रहे।
सो रहे अरमान क्यों,
विचार वो कब रहे।
कराल कर्म बन चुका,
तो भी मृत्यु दूर थी।
भेंट कपट की चढ़ चुकी,
क्यों वो चकनाचूर थी।
न्याय करता रहा पुकार,
तब भी ज्योत न जली।
लोग करते रहे विचार ,
तब भी जीत न पली।
एक नहीं, दस नहीं;
असंख्य जो बिछी पड़ी।
रही दण्ड भोगती वहीं,
मृत सम वो सजी खड़ी।
द्वार-द्वार कर रही पुकार,
नीरजा इस हिंद की।
न्याय की बिसात पर,
क्यों थम गईं वो चंद-सी!
थम गईं वो चंद-सी!
रहीं बुझी वो ख़्वाहिशें,
रुके ज़ख़्म हैं हरे-हरे।
भीगी पलकों में अभी,
टूटे ख़्वाब हैं आँसू भरे।
तरस रहीं थी आरज़ू,
तड़पते रहे ख़्याल भी।
सवाल वो कौन-कौन से,
रुदन! करते जवाब भी।
न रुका, हरण शील का,
तो दाग़ होंगे सीने पर।
दफ़न होंगी शिकायतें,
तो ख़ुद रोयेंगे जीने पर।
संभल सको, तो संभलो!
वक़्त अब भी है खड़ा!
बेटियों को भी पनपने दो,
वो अब ज़िद पर अड़ा!
वो अब ज़िद पर अड़ा!
वक़्त दे रहा सदा अब--
बेटों को संस्कार देकर,
नमन इस धरा का करो।
बेटियों की उड़ान से अब,
नव राष्ट्र का निर्माण करो।