क़तरा-ए-अश्क
क़तरा-ए-अश्क
जो औरों के लिए--
आँसू बहायें, वो कम हैं।
हर अश्क का सबब,
अपनों का गम है।
कहती है दुनिया,
न आँसू बहा, हम हैं!
पर मुफ़लिसी में साथ
हों, कहाँ सब में दम है।
हरा दे कोई,
कहाँ ग़ैरों में दमख़म है।
वक़्त-बेवक़्त हारता,
जो अपनों का भ्रम है।
आशियाँ, उनका देख;
नहीं खिला जहाँ कुसुम है।
फिर अफ़सोस क्यूँ ,
जो नहीं तब्बसुम है।
बिखर रहें यहाँ सब,
वक़्त! जो बेरहम है।
मुस्कराहटें लौटायें,
जिन्हें ज़रूरत-ए-मरहम है।
