वो वक़्त दूर नहीं-
वो वक़्त दूर नहीं-
क्यों तरस रहे रिश्ते,
बरस रही आँखें भी।
दूर तक उदासी-सी,
दरक रही साँसें भी।।
हर-सू नज़र आती,
आग की दीवारें-सी।
तड़प रही मंजिलें यूँ,
अंगारे से चिराग़ भी।।
जल रहे घर के घर,
तड़पते आँगन भी।
सुलग रहे अरमान,
तरसते हैं सावन भी।।
रुपयों की महक से,
बदल रहे रिश्ते भी।
भूले-भूले संस्कार यूँ,
मिट रहे फ़रिश्ते भी।।
कोंपले उगलती विष,
पिघलते रहे वृक्ष भी।
नव सृजन मूक बना,
बिलखते अक्ष सभी।
क्यूँ दलदली ज़मीं पर,
मकान बन रहे अभी।
भयभीत से जीने को,
मज़बूर हो रहे सभी।।
भावशून्य से शब्द हुए,
मुरझा रहे फाग़ भी।
क्यूँ कर्म रो रहा यहाँ,
सुषुप्त हो रहे राग़ भी।।
क्यूँ टूटते से द्वार हैं,
तिरस्कृत पाज़ेब भी।
सच ज़मींदोज़ हुआ,
पलते रहे फ़रेब भी।।
यदि यूँ ही चलते रहे,
तो वो वक़्त दूर नहीं।
अश्कों के सैलाब में,
डूब रहे होंगे सभी।
