नदी की तड़प--
नदी की तड़प--
तड़पती नदी कह रही,
कीचड़-सी मैं बह रही।
झूठी लगती मेरी राहें।
रूठी-सी खुद की बाहें।
जल रहा अस्तित्व,
जल रही निगाहें।
मसल रहा ममत्व,
बदल रही निबाहें।
खो गई हैं मंज़िलें,
खो गए सब रास्ते।
वो उमंग भरे दिन,
वो ख़ुशी के वास्ते।
सुलग रही दिलों में,
कितनी रिवायतें।
तड़प उठी वह,
ले उदास चाहतें।
वो पंछियों के सुर,
प्रकृति की सजावटें।
वो आँखों में छिपी,
कितनी मिलावटें।
धुंध-सी बनी हैं क्यों,
मेरी ही मुस्कराहटें।
मुश्किलों से घिरी जो,
अपनी ही आहटें।
जो बेदम-सी हुई,
वो तड़पती नदी हूँ।
कीचड़ से भरी,
ज़माने की बदी हूँ।
By Pratima
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