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Pratima Devi

Tragedy Children

4.8  

Pratima Devi

Tragedy Children

घर की चहारदीवारी में-

घर की चहारदीवारी में-

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छोटी-सी आशाओं के कई दीप जलाती।
नन्हें-नन्हें हाथों से असंख्य सीप बनाती।
कितनी ही रातों से, एक पल सोयी नहीं।
दीवारों के कोनों से सजले कीप बनाती।।


पड़ी किताबों को ललचाई जो देख रही।
उसके हर पन्ने पर लिपटी जो रेख रही।
बड़े अरमान से धूल कणों को छू-छूकर।
आज भी वो, बुझते दीयों-सी लेख रही।।


सपनों में जो आज भी ख़ुद खोयी रही।
बीती बातों-सी भूली, पर संजोयी रही।
बोझ नहीं वो, पर कुछ अलग-थलग है।
आँगन पे देती नन्हें हाथों की थाप रही।।


घर पड़ी टूटी चप्पल-सी, अनदेखी वो।
सुबहोशाम खाली बर्तन-सी फेंकी जो।
लेकर आँखों में, कितने ही स्वप्न जिये।
भोली धूप-सी, सबके हाथों बहकी वो।।


अपनों संग रहकर भी अनजानी रही।
गिरे फूल-सी थी, कितनी बेगानी रही।
नोंचते घर के कोने की, हर शाम रही।
घिरी दीवारों से, खुली जिस्मानी रही।।


अपने रिश्तों की नित माँग दुहाई रही।
कुचली बिखरी टूटी, एक सौदाई रही।
माँ की बेबसी, आँखों की जुदाई रही।
क्यों चहारदीवारी लुटी अंगनाई रही।।

By Pratima
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