न जाने क्यों
न जाने क्यों
रिश्तों को सहेजते रहे
कपड़ों की तरह
एक उम्र भी अब
लगने लगी है कम न जाने क्यों !!
कपड़े तो नित नये
सिलवाने लगे हैं सब
मगर रिश्तों में आया नयापन
अखरने लगा है न जाने क्यों !!
दीवार से सटी अलगनी की
पकड़ भी समय के साथ
ढीली हो गई जनाब
वो तो महज वस्तु है बेजान
फिर रिश्ते बदलने लगे तो
क्यों हुआ दर्द का अहसास
ये रिश्ते है दिल से जुड़े
जज़्बात है इनका आधार !
लेते हैं लोग बार-बार परीक्षा अपनों की
न जाने क्यों
कहीं परीक्षा देते-देते
अपने भी न हो जायें अनजान
फिर रह जायेंगे खाली
ईंट-पत्थरों के मकान !
किसको आवाज देंगे
जब पूरे नहीं होंगे अरमान
कपड़े तो फेंक देते हैं उतार कर
जब भी मन चाहे
पर रिश्ते कभी फेंके नहीं जाते यजमान !
रिश्तों की सौंधी महक
हर पल खींचती रहती है अपनों को
अपनों से मिलाने के लिये
बीच की दरार को भरने के लिये!
दूर जाने वाले को पास लाने की
बेइतंहा कोशिश में
कभी झुकती है तो कभी मिटती है
पर यह महक जीवंत रहती है ताउम्र
न जाने क्यों!!
न जाने क्यो!!