वो बीते पलछिन
वो बीते पलछिन
मेरी दहलीज़ महकती है तुम्हारी पसीजती पिंडलियों की महक से,
पर वो महक मुझे चैन से जीने नहीं देती
क्या बताऊँ कितना भयावह होता है अकेलापन...
तुम कैसे निकल गई अकेली?
सालों से बिस्तर के दूसरे छोर पर तुम्हारा साथ मेरी सुकून देह नींद की गवाही था,
आज उस तरफ़ करवट बदलने से भी डर लगता है..
सुहानी ज़िंदगी के वो बीते पलछिन को ढूँढते
चीत्कार उठते है अहसास
आक्रांत करती है वेदना
आधे सफ़र पर साथ छोड़ना तुम्हारा मेरे वजूद को हिला गया...
रोम रोम जलता है तुम्हारी याद जब खून के साथ नख शिख बहती है
नहीं रोक पाता यादों का कारवां
अश्कों की आंधी में बह जाता हूँ
कैसे झेलूँ तुम्हारे जाने का दर्द...
"सब कहते है नियति का खेल है
मैं कहता हूँ मेरी जान पे बन आई है"
बेजान दीवारों से बहती तुम्हारी उँगलियों की महक में तलाशता रहता हूँ तुम्हें..
अपना पूरा असबाब रख दिया ईश के चरणों में रिश्वत देते,
पर तुम्हें नहीं बचा पाया इतनी महंगी क्यूँ थी तुम...
ये देखो तुम्हारे बच्चे अचानक बड़े हो गए कल तक संभालता था मैं जिसे आज वो मुझे संभाल रहे है...
काश तुम्हें पता होता कि एक औरत के बिना मर्द कितना अकेला होता है,
तुम यूँ अचानक अपनी साँसें समेटने का सोचती तक नहीं...
अगर कहीं से देख रही हो तुम मुझे, अगर सुनाई देती है तुम्हें मेरी सिसकियां तो लौट आओ ना...बहुत अकेला हूँ तुम बिन...
घर के हर कोने में तुम्हें देखने की आदी मेरी आँखें बरबस बरस रही है।