अतिथि देवो भव
अतिथि देवो भव
दर्द ने दरवाजे पर
दस्तक दी, बोला
अब ना जाऊँगा ।
इस बार मेहमान
नहीं, हमसफर बन
दिल में बस जाऊँगा ।
रोज़-रोज़ दस्तक
देना ठीक नहीं ,
बेवफाई का काँटा
बन, हृदय भेद जाऊँगा ।
अतः प्रेम भी
अच्छा नहीं, इसमें
घृणा का बीज मिलाऊँगा ।
तेरे भरोसे की
कोई सीमा नहीं
उसे चूर-चूर कर जाऊँगा ।
तेरे समर्पण ने
ख्याल दिन-रात
किया, अपने को
भूल, सर्वस्व दिया,
उसे ठेस पहुँचाऊँगा ।
अब तू दिल
से कितना भी
निष्कासित कर
तेरे दिल से न जाऊँगा ।
फिर वफा
टकराई दर्द से,
माना बेवफाई
ने रंग दिखाया
पर जीतेगी वफा
यही अटल सत्य ।
देर-सवेर अतिथि
चला ही जाएगा
यह भी है सत्य ।
प्रेममय नयन नीर
धो देंगे सब
गिले-शिकवे ,
दबे पाँव दर्द
चला ही जाएगा ।
सुख हिंडोले पर
चढ़कर आएगा ।
प्रेम का एहसास
और निखार लाएगा ।
जीवन फिर
सुरम्य-रंगों
में रंग जाएगा ।
तभी तो कहते
'अतिथि देवो भव' ।