शायद भूल जाते
शायद भूल जाते
जब शाम दस्तक देती
तो हारे-थके पंछी
लौट आते,
अपने नींडों में
चीं-चीं करते।
पर कुछ पंछी
राह भूल जाते।
उल्लू और चमगादड़ों
में फंस जाते।
यत्न करने पर भी
निकल नहीं पाते।
बस उन जैसे
ही हो जाते।
रातों को भटकते
ही रह जाते।
जब थक-हार
लौटना चाहते
तो कभी स्वयं के
अहम से टकराते,
कभी अपने ही
उन्हें नहीं अपनाते।
वो तड़पते ही
चले जाते।
रोशनियों से वो
कतराने लगते
अपनी ही एक
दुनिया बसाने लगते।
जहाँ वो पेड़ों से
उल्टा लटकने से डरते
और गिद्ध जैसे झपट्टा
मार नहीं पाते।
सहमे-सहमे से पेड़
के खोखले में पड़े रहते।
न मर ही पाते,
न जी ही पाते।
उन्हें कोसते रहते,
जो उन्हें ढूँढ नहीं पाते।
हर कोई अपना
दाना चुगने में व्यस्त
ये वो समझ नहीं पाते।
न ही अपने अहम से
टकराने का साहस कर पाते।
वो जलन की आग में
जलते ही चले जाते।
स्वाह होने से पहले
ही स्वाहा हो जाते।
पर अपनों को अपना
कह नहीं पाते।
अपनी भूल स्वीकार
नहीं कर पाते।
शायद भूल जाते
"सुबह का भूला शाम को
घर आ जाए तो
भूला नहीं कहलाता "
बस यही जीवन में
समझ नहीं पाते।