अतिवृष्टि
अतिवृष्टि
अतिवृष्टि कब सृष्टि से
उलझ गई,
कानों-कान किसी
को खबर न हुई।
वो तो बस तूफानी
सैलाब-सी आई।
जाने क्यों !
मानव को घर समेत
बहा ले गई।
एक झटके में
मानव का सर्वस्व
छीन ले गई।
मानव चीखता रहा,
चिल्लाता रहा।
वह विध्वंस
मचाती रही।
तभी गूँजी सृष्टि !
वो जो तरुओं की
जड़े थी हिलाई ,
उससे ही थोड़ी
पकड़ ढीली हुई।
पाषाण संग मृदा
इतनी बह गई
कि तेरे घर
अपने संग
बहा ले गई।
तब भी सुनामी
के नीर की शक्ति
तुझे समझ न आई।
धूर्त बुद्धि मानव !
जल से
जल की प्रकृति
छीनने चला।
उसके रिसने
और बहने पर
रोक लगाने चला।
पानी अपनी
माँ स्वरूप नदियों
में बहता था।
उसकी गहराइयों
में रहता था।
तूने उसका
रास्ता रोकना चाहा ,
उन्हें मूल स्थान से
हटाना चाहा।
उनकी गहराइयों को
भरना चाहा।
कब तक
सहता वारि ,
कब तक
बँधता वारि ,
आखिर धैर्य
टूट ही गया
और हर
बाँध फूट गया।
मानव का कर्म
उसकी तबाही
ले आया।
उसे गरम-गरम
पकवानों संग
ही उठा ले गया।
तू कब नीर की
प्रकृति जाना।
तू तो अपना
सब मैल उस में
उडेलता रहा
और उस का दम
घुटता रहा।
तूने अपनी
सीमाएँ तोड़ी,
उसने भी तोड़ी।
वो अतुल्य शक्ति
का स्वामी
विध्वंस मचा गया,
अपनी राहें स्वयं
निर्मित कर गया।
क्षमा याचना कर,
प्रकृति के पाँव पड़,
वादा कर ,
सरिताओं को
उनकी राह देगा,
भूगोल को
यूँ न सजा देगा।
पर्वतों को यूँ
ही न हीला देगा।
तब शायद
प्रकृति तुझे
जीने दे ,
सृष्टि गोद में
बिठा ले
और वृष्टि
जल में
नहाने दे।