"रंग बदलती दुनिया"
"रंग बदलती दुनिया"
रंग बदलती दुनिया के रंग बदलते लोग
गिरगिट भी शर्मिंदा देख उनके रंग लोक
जिधर स्वार्थ ज्यादा, उधर चले जाते लोग
हर रिश्ते में अब स्वार्थ का फैला आलोक
रोशनी से ज्यादा आज अंधेरे गहरे हुए,
आज रवि रश्मियों में भी फैल गया रोग
रंग बदलती दुनिया के रंग बदलते लोग
शीशे से टूट रहे, वर्षों के पत्थर बेजोड़
जिन्हें हम सबसे ज्यादा पास मानते
वो ही अपने मार रहे, हमें टोक ठोक
आदमी का मुफलिसी दौर क्या आया,
गरीब की बकरी को सब बता रहे चोर
सब के सब रिश्तेदार मेरे बदल गये है
जब से बोलने लगा साखी सत्य बोल
रंग बदलती दुनिया के रंग बदलते लोग
क्या मात-पिता, पत्नी, क्या अन्य लोग
आज वो दग़ाबाज़ी के पढ़ रहे श्लोक
जिनको दिया था, सहारा बेरोकटोक
आज वही लोग, मचा रहे बहुत सोर
जिनके पास नहीं है, कोई सत्य लोक
आज दुनिया में कैसे-कैसे हो गये है, लोग
परछाइयां मुर्दा हुई, जाने लगी उन्हें छोड़
आईने में होने लगे असंख्य छेद, उन्हें देख,
जो गिरगिट के बाप है, रंग बदलते है, रोज
मौसम भी एक पल तो खा गया है, चोट
लोगों के रंग देखकर, दंग रह गया बहुत
रंग बदलती दुनिया के रंग बदलते लोग
अपने लहूं को पानी कर रहे है, वो रोज
रंगीन दुनिया में दिखावा करते है, जो
लोग उनके ही लगाते, यहां पर धोक
पर मासूमियत का जिन्हें लगा है, रोग
उनकी खुद से ही होती है, नोकझोंक
जो मौकापरस्त, क्या वो चालक है, गोत्र
यही सोच शूलों में चल रही, फूल खोज
क्या में बुरा हूं, या बुरा है, यह दुनिया सोत
जैसे हूं, कम से कम एक रंग की हूं, चोंच
रंग के शहर में साखी हो गया, अकेला
उसके पास नहीं, रंग बदलने की नोक
पर लंबा चलता, वो सिक्का इस लोक
जिसमें होता नहीं है, ज़रा सा भी खोट
जो जीता है, भले बिना रंगीन दुनिया के,
पर जिसके इरादों में है, सच्चाई आलोक
उसे रंग बदलती दुनिया का न होता लोभ
वो खुदी में रहता, बनकर स्व सफेदी योग