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mridula kumari

Tragedy Others

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mridula kumari

Tragedy Others

श्रमिक

श्रमिक

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होकर दीन हीन लिए कृशकाय शरीर ,

लेकर आत्मबल का संबल ये मजदूर।

नाप रहा मिलो पग पग रख धीर ,

आज महामारी से होकर के मजबूर ।

चल रहा हर पल गिर संभल फिर फिर, 

किंतु डटा है जीवन संघर्ष में वो कर्मवीर।


रंगबिरंगी दुनिया में जग खोजता नित जहां प्रकाश।

करने पूर्ण उनके स्वप्न करके धरा के कोख में वो प्रवेश ।

लिए हथौड़ा हाथ प्रस्तर पर कर प्रहार, बढ़ रहा वो नित अनिमेष।।


जग मदमस्त है जब उड़ने को नीला आकाश।

भूगर्भ में जा जला रहा तन अपने वो निर्णीमेष।

नहीं फिक्र जिन्हें इनके जीवन की, लिए उनके सदा आदेश।

रहे कर्तव्य पथ पर डटे नित होकर भरण पोषण के आवेश।


भू रत्न लाकर के करने सबके स्वप्न साकार,

बढ़ रहा नित्य वो, जहां है धधकती अंगार ।

इस जग की इच्छाओं का नहीं कोई आकार।

लिए संबल अपने आप पग बढ़ रहे लगातार।

बेसुध हो बढ़ रहा नित चलाने को घर परिवार।

मैं समझूं इस के दुःख का है नहीं कोई पारावार।


करके भूगर्भ में प्रवेश निकाल लाते हैं वो भू रत्न,

किंतु निर्धन ही रहते हैं स्वयं करके दिन रात वो यत्न।

चीर कर गहन अंधकार लिए हथेली पर वो जान ,

पूरन करने जग के स्वप्न करते चल रहे वो प्रयत्न।


उपजाया कपास किंतु धारण किए चिथड़े फटे वस्त्र,

किया प्रकाशित हमारा घर किंतु गुजारा स्वयं घोर अंधकार,

वसुधा के वक्ष पर लगातार जुटाने को ईंधन किए प्रहार,

किंतु स्वयं अभाव से ग्रस्त रहकर काट दिए अपने उम्र,

की भू पे हरियाली, भूखे कराहते बालक को रख यत्र तत्र।

बनाए उसने भवन आलीशान,

किंतु है उसका घरौंदा जिसकी यहां–वहां चूती छत सर्वत्र ।


किन्तु नित दिन कर्तव्य पथ पर, वो होकर धीर गंभीर।

डटा है, ना हारा है, ना हारेगा, है वो सच्चा रणवीर ।।


सृजन–सृष्टि है इनका नित्य कर्म।

भरण–पोषण ही इनका है धर्म।

दिखा के सदा सद्भाव बस पाया पीड़ा औ मर्म।

नींव बन कंगूरे को कर समृद्ध, किया सदा ही इसने सत्कर्म।

नहीं संभव हमारे बल, हूं अचंभित मैं देख इनके परिश्रम।

सन्मुख हमारे आज एक प्रश्न कब निभाएं हम मानव धर्म।

बढ़ाकर जीव जीव में प्रेम बनाएं अपना भी हृदय हम नर्म।।


ये हैं कर्णधार, हम हैं कर्जदार, करें मिलकर एक विचार।

ये जो हैं संतोषी श्रमिक, करें हम भी इनके स्वप्न साकार।

हम हैं नित नतमस्तक, हैं हम इनके सदा आभार।।

          


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