पुकार ( एक आह्वान गीत )
पुकार ( एक आह्वान गीत )
दूर कहीं उस नीरवता से, नित नई–नई आशाएं लेकर, रह रह कर आती है पुकार, होंगे कब हम एकाकार ?
हुए पर्वतों के नग्नीकरण, हुए नदियों के सृजन, विनाश हुआ, हुए निर्माण !बीती सदियां, बीते समय के चक्रधार।
पर क्या अब तक मिला सकें हम? एक सभ्यता, एक प्रेम को–पूरब–पश्चिम एक समान ?
है लिया जन्म प्रतिस्पर्धा ने, पूर्वात्य–पाश्चात्य राष्ट्रों में, बढ़ रहे परस्पर आगे ये, छोड़ बंधुत्व की भावनाएं।
बढ़ते रहे, बढ़े ये रोज निरन्तर, बढ़कर पहुंचे चंद्रतल पर, पाने को कुछ प्रेम नया–पर लगता मुझको संशय है यहां।
ज्यों–ज्यों ये बढ़ते जाते हैं, दिल इनका घटता जाता है, पहुंचे हैं चंद्रलोक को यथा – गुण धर्म चंद्र का ही अपनाते जाते हैं।
इधर घृणा का नहीं पारावार, हिंसा का तो है अगम्य अपार, बस बरबस आती है एक पुकार होंगे कब हम एकाकार।।
