बताना होगा।
बताना होगा।
समाज
कभी नहीं बदलता
वो सिर्फ
समय के पटल पर
अनेक रूप लिए
अभिनय करता है।
उसकी सीमाएं
हर दिशा में स्वतंत्रता को
अपनी दृष्टि में बांधने
घूरती रहती हैं
बाज की तरह।
उसके लिए
भूगोल चाहे धरती का हो
या स्त्री का
एक ही उद्देश्य के
निमित्त होता है।
उसे निर्लज्ज
वर्चस्व चाहिये प्रकृति पर
उसकी हर कृति
अनुकृति पर
बिना भेदभाव।
समाज
छलिया हो कर
हमेशा छलना चाहता है
लेकिन कहलाना
चाहता है खुद को
विकसित या
विकास शील।
पिछड़ेपन में
ढूंढता है अपनी कलुषित
इच्छाओं की पूर्ति
कुछ ढोये आते नियमों
के नाम पर।
समाज सच में
कभी नहीं बदलता,
कभी कभी कुछ समय को
बदलता है अपना कलेवर
देख कर भीड़-बहाव
और मरे सांप सा
पड़ा
रहता हैं कोने में।
समाज ओढ़ लेता है
अपनी नई नियमावली
जब लेना चाहता है
एक सियासी करवट
परोस देता है उन्माद
भीड़ को।
कभी नहीं
बदलता उसका सलूक
खुशी से उछलते स्वप्नों को
पल भर में
गिरा देता है अपनी
कड़वाहट की चाबुक से।
समाज
जानता है कि नन्ही
मगर चुपचाप फैलती दूब जैसी
हर मौसम में झेलती-बचती
सोच से वह हार सकता है
इसलिए उसका कुछ भी नहीं
छोड़ना चाहता
जड़-पाती नोच उखाड़ कर
सब खाता रहता है
धीरे धीरे
चबा-चबा कर।
हमें अब
उगानी होगी
हर तरफ दूब ही दूब
थकाना होगा
उसके जबड़ों को
फैलाने होने दूब के मैदान
दूर दूर तक।
उग जाना होगा
उस पर ही बेशर्मी से,
डराना होगा
उसे बन कर दूब,
बताना होगा उसे,
वो हमसे है
हम उससे नहीं।