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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy Others

4.5  

Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy Others

"अपनी संस्कृति"

"अपनी संस्कृति"

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घर की औरतें नाच रही डीजे पर

बाहर वाले मजे ले रहे है, जमकर

खड़े-खड़े ही कर रहे है, लोग डिनर

आधुनिकता रंग चढ़ा है, इस कदर


अपने छोड़, भरोसा बाहरवालों पर

कैसा आज का ज़माना आ गया है,

सामाजिकता हो गई, आज बेघर

रिश्तो में मिठास न रही है, रत्तीभर


पुरस्कारी हो या फिर हो शहनाई

सब काम, आज पराये लोगो पर

घर की औरतें नाच रही डीजे पर

बाहरवाले मजे ले रहे है, जमकर


हर काम हो रहा है, रामभ रोसे पर

संयुक्त परिवार की ताकत रह गई,

आज के ज़माने में बस तिनका भर

बदल रहा लहूं भी रंग पल पल पर


जो काम होते थे, पहले मिल जुलकर

आज वही काम हो रहे है, पैसे पर

पर मजा न रहा है, वो मेहनतकश

जिसके बूते होते थे, नूते घर-घर


पहले पैसे देकर, लेते मजे जमकर

हम नचाते, सब नाचते थे मिलकर

औरतें रहती थी, अपनी मर्यादा में,

घूंघट में वो नाचती थी, बहुत सुंदर


पर आज संयुक्त परिवार हुए बेघर

सबकी मर्यादा आ गई, सड़कों पर

घर की औरतें नाच रही डीजे पर

बाहरवाले मजे ले रहे है, जमकर


अब बंद भी कर दो न यह तमाशा

वापिस लेकर आओ वो संयुक्त पर

जिसकी उड़ान टिकी थी, मर्यादा पर

भाईचारे की मिसाल थी, अति सुंदर


न कोई गिला, न कोई शिकवा

लापसी-पूड़ी में खुशी थी, मन भर

आज छप्पन भोग में न है, वो रस

जो आंनद लेते चोरी से जीमने पर


फटे कपड़ों में थी रईसी, इस कदर

हम नवाब होते थे, अपने घर पर

जब भी कभी पहनते नये कपड़े,

सब कहते मार रहा, ड्रेस की जमकर


पहनने को भले हो कपड़े सहस्त्र

पर न रहा वो अपनत्व भावना घर

जिसके आगे फीकी थी हर दौलत

वो सादगी हो गई आज रफूचक्कर


तोड़ो, पाश्चात्य परिवेश परिपाटी

अपनाओ देशी, भारतीय परिपाटी

फिर से स्वर्ग उतरेगा धरती पर

यदि सब चले, अपनी संस्कृति पर



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