कविता : विरहन , सावन में।
कविता : विरहन , सावन में।
बे-माने से लगते हैं मुझको, ये बरखा और सावन।
सब कुछ सुलगा है विरहन का,तन और ये मन और ये जीवन।
सदियों से लगते हैं पल भी, जब से बिछुड़े साजन।
हूँ बदहाल ,जुदाई ने मुझे, बना दिया बेरागन।
रिमझिम और पुरवाई भी, अब सावन तेरी न भाये।
वियोगन की पीड़ा ना समझे,बिन साजन क्यों आये?
कोयल की कुहुक भी अब तो,कर्कश बोली लगती है।
मोर, पपीहा ,गौरैया धुन ,सीने में गोली लगती है।
शीतल,मंद बयार,घन,बिजुरी, जो भी होती हैं सावन में।
जल बिन मीन सी तड़फ रही हूँ,आज विरह के कारण मैं।
मत सताओ,तरस खाओ,और किसी आंगन में जाओ।
जल रही हूँ वियोग में,मुझे और ज्यादा न जलाओ।
अपने बिछुड़े परदेसी को, जब बाहों में भर लूंगी मैं।
तेरे जैसी रिमझिम सावन, नैनों से ही कर दूँगी मैं।
अंत सत्य बस यही तथ्य है,तुम सुनते जाना सावन।
पिया मिलें 'उल्लास' जिस घडी, वही पल मेरा सावन।