विलेन--दो शब्द
विलेन--दो शब्द
जिंदगी के
नाट्य मंच पर
न जाने कब हम विलेन बन जाते हैं-
कभी स्वार्थ, कभी लालच
और कभी उन्नति के पायदान पर
गलत रास्ते पर चले जाते हैं-
उस समय
कहां हम देखना चाहते हैं सत्य,
सत्य की परिभाषायें हम खुद गढ़ लेते है-
कुमार्ग के मार्ग को
अपनी सफलता का मानदंड समझ लेते हैं--
और
किसी की चाहत में
बिना सोचे समझे इतने हो जाते हैं गुम,
कि मोहब्बत के मायने भी बदल जाते हैं-
कभी कभी
अनजाने ही अपनी मोहब्बत को
पाने की जद्दोजहद में उसका मोल भी लगा आते हैं-
सब कुछ
निकल जाता है
फिसलकर हाथ से अपने
और हम खाली हाथ रह जाते हैं-
जिंदगी के
नाट्य मंच पर
न जाने कब हम विलेन बन जाते हैं-
कभी स्वार्थ, कभी लालच
और कभी उन्नति के पायदान पर
गलत रास्ते पर चले जाते हैं-
मां-बाप के
अपनी नजरों के देखे सपने होते हैं-
हमारे अचानक मझधार छोड़ कर दूर जाने से
उनके दिल भी रोते हैं--
जिन्होने दी
होती है परवाज हमारे पंखो को--
जिन्होने पसीने की बूदों से रचा होता है
हमारा भविष्य के रंगो को--
उनकी सूनी
आंखों में जलते बुझते
आशाओं के जुगुनू नजर आते हैं--
जिंदगी के
नाट्य मंच पर
न जाने कब हम विलेन बन जाते हैं-
कभी स्वार्थ, कभी लालच
और कभी उन्नति के पायदान पर
गलत रास्ते पर चले जाते हैं.
